Success has many fathers but failure is an orphan.
वर्ल्ड कैडेट चैंपियनशिप में भारत के नाम दर्जनों मेडल्स हैं. लेकिन प्रिया मलिक जितनी बधाई किसी को नहीं मिली. आज से पहले 97.6 पर्सेंट लोगों को पता ही नहीं था कि ऐसा कोई टूर्नामेंट भी होता है. लेकिन फिर, बात वही है.
ये चार साल में एक बार आने वाले ओलंपिक्स का जोश जो करा दे कम है.
गोल्ड मेडल आया तो इन महामूर्खों को दिखा मौका. और झट से सेलिब्रेट कर लिया. फिर ये कौन देखे कि कहां से आया. अभी ओलंपिक्स चल रहे हैं तो वहीं से आया होगा. इतनी खोजबीन कौन करे, कहीं पिछड़ गए तो?
हम उल्लू लोग जीवनभर स्पोर्ट्स ही फॉलो करते रह जाते हैं और इवेंट आते रौला इन लोगों का बन जाता है. और ये बात कम ही लोग जानते हैं इस देश में रौला ही चलता है. और यही रौला इस देश को बर्बाद करेगा.
चार साल अन्य कामों में बिजी लोग ओलंपिक्स आते ही बिलों से निकलकर रौला बनाने लगते हैं.
सवाल करते हैं कि मीराबाई ने गोल्ड के लिए कोशिश क्यों नहीं की? इनको ना नियम से मतलब ना कायदों से बस भिखारियों जैसे मेडल चाहिए. लेकिन मेडल ऐसे मिलते तो क्या बात होती. मेडल मिलने के लिए सालों साल मेहनत करनी पड़ती है और उस मेहनत को सपोर्ट चाहिए होता है.
जो कि इस देश में संभव ही नहीं है. क्योंकि यहां की प्राथमिकताएं ही अलग हैं. फ़ैन्स तो छोड़िए, कायदे के रिपोर्टर तो हैं नहीं. और जो हैं वो... #PriyaMalik#SportsLovingNation#Tokyo2020
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उम्मीद बोनस एपिसोड-
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साल 2016 के वो तीस सेकेंड जिन्होंने IAS सुहास एलवाई को Tokyo2020 पैरालंपिक्स तक पहुंचा दिया
मंगलवार 29 नवंबर, 2016. यूपी का जिला आजमगढ़. पूरा शहर जश्न की तैयारी में था. लोग बेहद खुश थे. और आश्चर्य की बात ये कि इस खुशी में न तो गन्ना शामिल था और न ही धान.
इन दो फसलों के लिए मशहूर आजमगढ़ की खुशी का कारण सुदूर कर्नाटक में जन्मा एक 33 साल का युवा था. जो उस वक्त शहर का हाकिम होने के साथ नंबर एक का बैडमिंटन स्टार भी था. शायर कैफी आज़मी का ये शहर इस रोज़ सुहास लालिनकेरे यतिराज यानी सुहास एलवाई के तराने गा रहा था.
चाइना में हुई एशियन बैडमिंटन चैंपियनशिप का गोल्ड जीतने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर लौटे सुहास अपने स्वागत में शहर को उमड़ा देख आश्चर्यचकित हो गए. लेकिन ये आश्चर्य आने वाले दिनों में उनके लिए बेहद नॉर्मल होने वाला था. उन्होंने राह ही ऐसी चुन ली थी.
अब ओलंपिक्स मेडल लेकर आएगी बचपन में लकड़ी बीनने वाली लड़की?
क़रीब 14 साल पहले की बात है. मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर पड़ने वाले एक गांव की पहाड़ियों पर दो बच्चे पसीने से तरबतर खड़े थे.
जलावन की लकड़ियां लेने घर से निकले 16 साल के सनातोम्बा मीटी और उनकी 12 साल की बहन की समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें क्या. आसपास कोई मदद करने वाला भी नहीं था और सनातोम्बा से लकड़ियों का गट्ठर उठे ही ना. तभी उनकी बहन ने कहा,
‘मैं उठाऊं क्या?’
पहले तो सनातोम्बा समझ नहीं पाए कि उसे क्या जवाब दें. जो गट्ठर उनसे नहीं उठ रहा, वो पूरे चार साल छोटी बहन कैसे उठाएगी? लेकिन कोई और चारा ना देख सनातोम्बा ने हां कर दी. और फिर जो हुआ उसने उस 12 साल की लड़की को ओलंपिक तक पहुंचा दिया.
इस बार ओलंपिक्स मेडल जीत पाएंगी 'पुनर्जन्म' लेकर लौटी विनेश फोगाट?
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बचपन में जब हमें खेलते-खेलते चोट लगती थी तो घर के बड़े-बुजुर्ग हमें चुप कराने के लिए कहते थे- चोट खेल का हिस्सा हैं. बड़े हुए तो समझ आया कि बात सही तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं.
चोट खेल का हिस्सा तो है लेकिन इसे खेल में कोई चाहता नहीं, ये जबरदस्ती घुसपैठ करती है. कई बार तो प्लेयर्स इससे उबरकर वापसी कर लेते हैं, लेकिन कई दफा ये चोट करियर भी खत्म कर जाती है.
उम्मीद के हमारे चौथे एपिसोड में आज बात ऐसी ही एक प्लेयर की, जिसे चोट ने और बेहतर बना दिया.
जिसकी चोट इतनी खतरनाक थी कि लोगों को लगा अब करियर खत्म! लेकिन हरयाणे की इस छोरी ने दंगल जारी रखा. चोट को परास्त कर वापसी की और एक बार फिर से तैयार है… दुनिया पर छा जाने के लिए. विनेश फोगाट नाम की ये पहलवान Tokyo2020 Olympics में मेडल की हमारी सबसे बड़ी उम्मीदों में से एक है.
ग़रीबी को तो पटक दिया लेकिन ओलंपिक्स मेडल की रेस जीत पाएगा 'योगी का चेला'?
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ग़रीबी. तंगहाली या गुरबत. वो शय जिसकी चपेट में आने वाला परेशान ही रहता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस शय को ऐसा पटकते हैं, कि फिर ये लौटकर उनके पास नहीं जा पाती.
दी लल्लनटॉप की Tokyo2020 स्पेशल सीरीज ‘उम्मीद’ के तीसरे एपिसोड में आज बात ऐसे ही एक एथलीट की, जिसने ग़रीबी को अपने रास्ते में नहीं आने दिया. और ऐसा दांव चला कि आज पूरी दुनिया उसकी फैन है.
# कौन हैं Bajrang Punia?
बजरंग पूनिया.
रेसलिंग के लगभग हर बड़े इवेंट में मेडल जीतने वाले भारतीय रेसलर. हरियाणा के झज्जर जिले से आते हैं. बजरंग जब छोटे थे तो उनके परिवार के पास खेल-कूद का सामान खरीदने के पैसे नहीं थे. लेकिन बजरंग का मन तो खेल-कूद में ही लगता था. ऐसे में उन्होंने अपनी समस्या का सटीक जुगाड़ निकाला.