अपनी बौद्धिकता और सोच को सरकार या सरकारी मीडिया की डिमांड के मुताबिक "समायोजित" करने वाले कथित चिंतकों को मैं पूरे अदब से नमन करता हूं, लेकिन दूर से।
छपास की लाइलाज बीमारी पाले ऐसे चिंतक इस समाज को यही संदेश दे पाते हैं कि भेड़चाल में उलझे रहो। शोहरत मिलती रहेगी।
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क्या आप जानतेहैं कि भारत में आपके एक वोट की कीमत कितनीहै?या फिर आपका एक वोट कॉरपोरेट्स कितनेमें खरीदतीहै?
जवाब है-50रुपये(यह 2014के संसदीय चुनाव का आंकड़ा है)।अब तो यह और भी बढ़ चुका है।अमेरिका में वन वोट,वन का बवाल पहले सेही है।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज लुइस ब्रांडेस ने
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लिखा था-अमेरिकामें या तो लोकतंत्र होगा या फिर देशकी दौलत सिर्फ़ कुछ हाथोंमें सिमटी होगी,पर दोनों एकसाथ नहींहो सकते।
आर्थिक असमानता और राजनीतिक असमानताके बीच चोली-दामनका साथहै
उदाहरणके लिए यूरोपीयसंघ में जर्मनी इकलौता देशहै,जिसने सार्वजनिक स्थानोंपर धूम्रपानकी इजाज़तदे रखीहै।
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क्योंकि सिगरेट निर्माता कंपनियां सरकार को चुनावी चंदा देती हैं।
यानी, चुनावी चंदे के बारे में सरकार की नीतियों और सरकार की लोक हित की नीतियों में गहरा संबंध है।
अलबत्ता, भारत में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार और कॉर्पोरेट मीडिया इस सच को छापने की हिम्मत नहीं कर पायेगी।
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लिहाज़ा, शिक्षा,स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर आंकड़ों की बाजीगरी देश में आर्थिक असमानता को दूर करने के दकियानूसी सुझाव ज़रूर हो सकते हैं- जो दशकोंसे दिए जा रहेहैं।
अमेरिका में1980के दौरान सबसे अमीर 0.01%का चुनावी चंदे में हिस्सा15%था, जो 2016 में बढ़कर 40%और अब करीब50% होचुका है।
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इसी दौरान अमेरिका के सबसे निचले50% आबादी की आय में उल्लेखनीय गिरावट आई। साथ में कॉर्पोरेट टैक्स से आयभी घटी।
फ्रांस तो और भी ग़ज़ब है। वहां संसदीय चुनाव में एक वोट6यूरो और नगरीय निकाय चुनावों में 36यूरो का पड़ताहै।
तो भारतमें50रुपये प्रति वोट की दरसे85 करोड़ वोटरों का जनमत
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खरीदने की ताकत किसमें हो सकतीहै?
निश्चित रूपसे अडाणी और अम्बानीजैसे कॉरपोरेट्स में।वे राजनीतिक चंदा देकर सरकार खरीदतेहैं।इसीलिए शिक्षा,स्वास्थ्यसे लेकर रोज़गार जैसे विषयोंके माफ़िया देश में पनपे हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार सिरे से सब बेचती जा रही है,यहां तक कि मंदिर भी।
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इस छोटी सी बात को समझनेके लिए अपनी सोचको गुलाम बनानेकी ज़रूरत नहीं।
कॉर्पोरेट फंडिंगसे बढ़ती आर्थिक असमानताके खतरेको देखकर बेल्जियम जैसे कई यूरोपीय देशों ने90के दशकमें ऐसे कानून बनाये,जिनसे चुनावोंमें अमीरों का दखल घटता गया।
आज इन देशों में सामाजिक-आर्थिक असमानता न्यूनतमहै।
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इस सच को दरकिनार कर अगर आप आज यह कहें कि सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाये तो मेरे जैसा कम अक्लमंद शख़्स हंसेगा, क्योंकि दोनों में ही सरकार ने दुकानें खड़ी की हैं।
रोबर्ट डाल लोकतंत्र को यूं समझाते हैं- सरकार अपने नागरिकों की प्राथमिकताओं के प्रति लगातार संवेदनशील हो,
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उन्हें राजनीतिक रूप से सामान माने,तभी लोकतंत्रहै।
इसलिए मेरा ऐसे फ़र्ज़ी पंडितों से आग्रह रहता है कि पहले कॉर्पोरेट तंत्र को खदेड़ें,फिर लोकतंत्र की बात करें जो समानतामूलक हो।
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लेकिन पेडिग्री मीडिया ऐसी किसी विचारधारा को अपने मालिकों के हित के ख़िलाफ़ मानकर रद्दी की टोकरी में फेंक देगा।
लिहाज़ा, छपास की बीमारी से मुक्त होकर बेलाग लिखना ज़रूरी है। तभी आप चिंतक हैं।
बाकी, "सरकारी चिंतकों" को दिशा दिखाने के लिए लोग सड़कों पर हैं ही।
11 @BramhRakshas
हीरा गोल्ड में जब लोग बढ़ चढ़कर निवेश कर रहे थे तब मैंने हीरा गोल्ड के भोले भाले मासूम से निवेशकों को सावधान करनेके लिए छोटा सा ट्रैलर रिलीज़ कियाथा..तब मुझे पताचला कि हमारे शहरमें हीरा गोल्ड वाली चाचीके हाथमे बैत करने वालोंकी एक बहुत बड़ी तादाद रहती है।उसकेबाद मुझे कई सिरफिरे
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लोगों का सामना करना पड़ा और कई लोगों को समझाना पड़ा कि आख़िर क्यों मुझे हीरागोल्ड में जीरागोल्ड नज़र आया!लेकिन अफसोस.. सिवाय मेरे दो-चार दोस्तों के कोई नहीं समझा। सबने यही कहा कि चाची तो बुरखा पहनेहैं, चाचीतो हिजाबमें रहवे है,चाची तो नमाज़ पढ़े है..चाची तो बड़ी अल्लाह वाली है।
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चाची तो सिर्फ मुसलमानों का पैसा लेवेहै,चाची तो सिर्फ मुसलमानो का फायदा करेहै।तब मुझे लोगोंकी मासूमियतपर हँसीआई।
बहरहाल एक दिन आया,जब चाचीने कर्नाटक विधानसभा चुनावमें भाजपाको फायदा पहुंचाने के लिए नाटक करके दिखाया।तब ये बात साफ हो गई कि चाचीने अपनी सल्तनत बचाने के लिए सत्ता से
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आजकल वो,
● मैं देश नहीं बिकने दूंगा, जैसी खुबसूरत बातें नहीं करते !
● अब वह स्विस बैंकों में जमा काला धन जो अब डबल हो चुका है, पर बात नहीं करते !
● अब वो सब के खाते में 15-15 लाख रुपए आने की बात नहीं करते !
● अब वह डॉलर के मुकाबले गिरते रुपए पर बात नहीं करते !
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● अब वो जिस देश का रुपया गिरता है उस देश के प्रधानमंत्री की इज्जत गिरती है, ऐसी बातें नहीं करते !
● अब वो देश की गिरी हुई जी. डी. पी. पर मुंह नहीं खोलते
● अब वो देश में हो रहे बलात्कारों व अत्याचारो पर बात नहीं करते !
● अब वो दागी मंत्रियों व नेताओं पर बात नहीं करते।
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●अब वह महिलाओं की सुरक्षा पर बात नहीं करते!
●अब वह जमाखोरी पर बात नहीं करते !
●अब वो मिलावटखोरी पर बात नहीं करते !
●अब वो रिश्वतखोरी पर बात नहीं करते!
●अब वो स्मार्ट सिटी बनाने की बात नहीं करते!
●अब वो बुलेट ट्रेन की बात नहीं करते!
●अब वो अच्छे दिनों की भी बात नहीं करते!
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बैंक यूनियन आता है, निजीकरण का डर दिखाता है, हड़ताल करवाता है। बैंक यूनियन के जाल में नही फंसना चाहिए।
यह तोता रटन्त रट लीजिए,
और कारण इस कथा से समझ लीजिए।
एक समय की बात है। भारतपुर में राम नामक लोहे का व्यापारी था। उसने100रुपये का कर्ज लेकर, लोहा खरीदा। जिसे वह130रुपये मे
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बेचकर,बैंक को 112 रुपये लौटा देता। इस तरह राम के 18 रुपये मुनाफे के बच जाते।
यह काम वह कई बरसों से सफलता से कर रहा था। लेकिन इस बार एक दरिंदर नामक गली का गुंडा, हावी हो गया है। वह राम की दुकान खुलने नही देता।उसके ग्राहकों को धमकाता है। उसकी दुकान के सामने गड्ढा खुदवा देता है।
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जब राम अपना लोहा बेचनहीं पाया,तो उसमे जंग लगने लगी।बैंकका कर्ज एनपीए हो गया। एनपीएहोने की,शहरके अखबारमें बड़ी बड़ी खबरें छपी।एंकरोंने डिबेट चलाई,राम बदनाम हो गया।आखिरकार,किश्ते न पटनेपर,बैंक राम की दुकान पर कब्जा करलिया और सारे लोहेकी नीलामी करवादी
अब मांग हो रही है कि लुटियन दिल्ली के अकबर रोड का नाम बदल आकर विपिन रावत पर रख दिया जाए- इससे पहले औरंगजेब रोड का नाम बदला गया था- ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम पर .
जान लें इंडिया गेट के आसपास की दिल्ली जब सन 1912 में प्लान की गई थी तब उसका अनुमानित बजट10.01,66500 रुपये था ,
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बाद में यह बढ़ता गया क्योंकि छः हजार एकड़ में निर्माण का कार्य 1929में ख़त्म हुआ .लुटियन ने इसका डिजाइन बनाया था और उस समय सेंत स्टेफेन कालेज में के प्रोफेसर पेरिसेवत स्पीया ने सड़कों के नाम रखने पर सुझाव दीये थे --उनका सोच था की जिन लोगों नर भी दिल्ली पर राज किया उनके नाम हों
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यहाँ फिरोज शाह के नाम की भी सडक है और दारा शिकोह और बहादुर शाह जफ़र भी -- इंडिया गेट से निकलने वाले आठ मार्गों और उप मार्गों के लिए कुल13किस्म के पेड़ चुने गयी और तय किया गया की हर सडक पर केवल एक नस्ल का पेड़ होगा जैसे की अशोक रोड पर जामुन-- उस समय साक्षरता कम थी,लोग सडक के नाम
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एक थे जवाहरलाल नेहरू एक है नरेंद मोदी
एक थे लालबहादुर शास्त्री और एक है अजय मिश्रा टेनी
1956में लाल बहादुर शास्त्री रेलमंत्रीथे।इस दौरान तमिलनाडु के अरियालुर में भीषण ट्रेन हादसा हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए थे, बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे।इस हादसे के लिए स्वयं को जिम्मेदार
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मानते हुए उन्होंने रेल मंत्रीके पदसे इस्तीफा दे दिया
देश एवं संसदने शास्त्रीजी की इस अभूतपूर्व पहल पर हैरान रह गया,किसीने उनसे इस्तीफा मांगानही था लेकिन उन्होंने हादसेकी नैतिक जिम्मेदारीको स्वीकारकिया और आगे बढ़कर स्वंय इस्तीफादे कर भारतीय लोकतंत्रके लिए एकअनूठी मिसाल प्रस्तुतकी
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूने इस घटनापर संसदमें एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने लाल बहादुर शास्त्रीकी ईमानदारी एवं उच्च आदर्शोंकी तारीफकी।नेहरूने संसद में कहाकि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसकेलिए जिम्मेदार हैं बल्कि
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धर्म की तुला पर राजनीति का सौदा करने में माहिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीने कल यूपी के चुनाव में औरंगज़ेबकी भी एंट्री करवादी।
उन्होंने कहा कि “जब औरंगज़ेब आता है तो शिवाजी भी उठ खड़े होते हैं,”जो उनकी इच्छानुसार आज अख़बारों की सुर्खी भी है।
उनका संबोधन उन संघियों को ध्यान मे 4/1
रखकर है, जिन्हें आरएसएस रात-दिन शिवाजी माने ‘हिंदू’ और औरंगज़ेब माने ‘मुसलमान’ पढ़ाता रहता है।
मोदी जी को जानना चाहिए कि औरंगज़ेब जब आता है तो मिर्ज़ा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह की ताक़त पर आता है और जब शिवाजी उठते हैं तो इब्राहिम ख़ान जैसे तोपची और दौलत खां
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जैसे नौसेनाध्यक्ष को साथ लेकर उठते हैं।
शिवाजी हिंदू थे, हिंदुत्ववादी नहीं! (राहुल गांधी के शब्दों में)
शिवाजी का ‘हिंदवी साम्राज्य’ बीजापुरी मुस्लिम सिपाहियों समेत तमाम मुस्लिम सेनानायकों की कुर्बानियों से बना था।
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