Śakhās are branches of the Vēdas. Recension would be the words to describe. There are supposed to be a total of 1130 Śakhās (all the four Vēdas put together) as per Purāṇas and other sources.
Ṛg Vēda Śākhās Totally 21, 6 are identified, 2 are alive
Śākala Śakhā: Most prominent Śakha today. Contains 10,552 verses.
Bhāskala Śakhā: Not available, this Sakha is mentioned in the Anukramaṇis, Caraṇayūha, and Bhāgvata Purāṇa.
Śāṇkhāyana Śakhā: This Śakha is mentioned in Agni Purāṇa and Caraṇayūha. Not available.
Aśvalāyana Śakhā: It is currently available and consists of total 10,761 verses. It is mentioned in may Śrauta Sūtras and Agni Purāṇa.
Māṇḍukeya Śakha: Not available
Bhāvṛica Śakhā: Mentioned in Śatapata Brāhmaṇa, Āpastamba Śrauta, and Kauṣītaki Brāhmaṇa Not available
Oldest could be Aśvalāyana and Śāṇkhāyana as it is mentioned in the Agni Purāṇa.
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यज्ञोपवीत को "ब्रह्मसूत्र " भी कहा जा सकता है। सूत्र डोरे को भी कहते हैं और उस संक्षिप्त शब्द-रचना को जिसका अर्थ बहुत विस्तृत होता है। व्याकरण, दर्शन, धर्म, कर्मकाण्ड आदि के अनेकों ग्रन्थ ऐसे हैं..
ब्रह्मसूत्र में यद्यपि अक्षर नहीं हैं, तो भी संकेतों से बहुत कुछ बताया गया है। मूर्तियाँ, चिह्न, चित्र, अवशेष आदि के आधार पर बड़ी-बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि इनमें अक्षर नहीं होते, तो भी बहुत कुछ प्रकट हो जाता है ।
गायत्री को गुरु मन्त्र कहा जाता है। यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदारंभ कराया जाता है, वह गायत्री से कराया जाता है। प्रत्येक द्विज को गायत्री जानना उसी प्रकार अनिवार्य है, जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना । यह गायत्री यज्ञोपवीत का जोड़ा ऐसा ही है, जैसा लक्ष्मी-नारायण,
यंत्र, मंत्र व देवता की गति को निर्धारित करता है। कार्य की दिशा को इंगित कारता है। वर्णाक्षरों व अंकों का लेखन भी भूतलिपि माध्यम से मंत्र की सत्ता को निहित करते हैं। यंत्र देवता की प्राकृतिक सत्ता का भी बोध कराते हैं। जैसे
त्रिकोण सत्, रज, तम तीन अवस्थाएं।
षट्कोण - सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, ग्रेस, निग्रह - ग्रेस स्टेटये । पटकोण में देवता के पड़ांगों की कल्पना कर देवभाव को प्राकट्य किया जाता है।
अष्टदल अष्टदलों में अधिकतर ब्राह्मयादि अष्टमातृका या अष्टभैरवों का पूजन अथवा देवी की अष्टांग शक्तियों - का वर्णन होता है।
१. गालिनी मुद्रा- दोनों हथेलियों को एक दूसरे पर रक्खे। कनिष्ठिकाओं को इस प्रकार मोड़े कि वे अपनी-अपनी हथेलियों को स्पर्श करें। तर्जनी, मध्यमा और अनामिका उँगलियाँ सीधी और परस्पर मिली रहें। यह शङ्ख बजाने
बजाने की गालिनी मुद्रा हैं।
२. कुम्भमुद्रा- दाहिने अंगूठे को बाँयें के ऊपर रक्खे इसी अवस्था में दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधे परन्तु दोनों मुट्ठियों के बीच थोड़ी जगह होनी चाहिये। यह कुम्भ मुद्रा हैं।
३. कुम्भमुद्रा द्वितीया- दोनों हाथ को मिलाकर एक ही मुट्ठी बनाये और दोनों
१. लिङ्गमुद्रा- दाहिने हाथ के अँगूठे को ऊपर उठाकर उसे बायें अँगूठे से बाँधे। उसके बाद दोनों हाथों की उँगलियों को परस्पर बाँधे। यह शिवसान्निध्यकारक लिङ्ग मुद्रा हैं।
२. योनिमुद्रा दोनों कनिष्ठिकाओं को, तथा तर्जनी और अनामिकाओं को बाँधे। अनामिका को
मध्यमा से पहले किञ्चित् मिलाये और फिर उन्हें सीधा कर दे। अब दोनों अंगूठों को एक दूसरे पर रक्खे यह योनि मुद्रा कहलाती हैं।
३. त्रिशूलमुद्रा कनिष्ठिकाओं को अंगूठों से बाँधकर शेष उँगलियों को सीधा रक्खें। यह त्रिशूल मुद्रा हैं।
४. अक्षमाला मुद्रा अँगूठों और तर्जनियों के अग्रभाग
जितनी दूर तक सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का प्रकाश जाता है, समुद्र, नदी और पर्वतादि से युक्त उतना प्रदेश पृथ्वी कहलाता है।जितना पृथ्विी का विस्तार और परिमण्डल है उतना ही विस्तार और परिमण्डल भुवलोंक का भी है। पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है और सूर्यमण्डल से भी एक लक्ष
योजन के अन्तर पर चन्द्रमण्डल है। चन्द्रमा से पूरे सौ हजार (एक लाख) योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशमान हो रहा है।
नक्षत्र मण्डल से दो लाख योजन ऊपर बुध और बुध से दो लाख ऊपर शुक्र स्थित हैं। शुक्र से इतनी ही दूरी पर मङ्गल हैं और मङ्गल से भी दो लाख योजन ऊपर