॥वैशम्पायन उवाच॥
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम्॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्टा राजेन्द्र ते अन्योन्यस्य प्रियंवदे॥
जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
राजेन्द्र
दोनों एक दूसरे को बहुत समय पश्चात देखा था इस कारण परस्पर प्रिय
लगनेवाली बातें करती हुई वहाँ सुखपूर्वक बैठी रहीं।
कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरु यदुत्थिताः।
अथाब्रवीत् सत्यभामा कृष्णस्य महिषी प्रिया॥
सात्राजिती याज्ञसेनीं रहसीदं सुमध्यमा।
केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानधितिष्ठसि॥
लोकपालोपमान् वीरान् पुनः परमसंहतान्।
कथं च वशगास्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे॥
कुरुकुल और यदुकुल से संबंध रखनेवाली अनेक विचित्र बातें उनकी
चर्चा का विषय थी। भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय पटरानी सुन्दरी सत्यभामाने
एकान्तमें द्रौपदी से इस प्रकार पूछा --
शुभे द्रपदकुमारि किस व्यवहार से
तुम हृष्टपुष्ट अङ्गोंवाले तथा लोकपालों के समान वीर पाण्डवों हृदयपर अधिकार रखती हो। किस प्रकार वे तुम्हारे वशमें रहते हुये कभी तुम पर कुपित नहीं होते हैं।
तव वश्या हि सततं पाणडवः प्रियदर्शने।
मुख्यप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्वमेतद् ब्रवीहि में॥

प्रियदर्शने क्या कारण है के पाण्डव सदैव तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब के सब तुम्हारे मुख की ओर देखते रहते हैं इसका यथार्थ रहस्य क्या है।
व्रतचर्या तपो वापि स्नानमन्त्रौषधानि वा।
विद्यावीर्ये मूलवीर्ये जपहोमागदास्तथा॥
ममाद्यातक्ष्व पाञ्चालि यशस्यं भगदैवतम्।
येन कृष्णे भवेन्नित्यं मम कृष्णो वशानुगः॥
पाञ्चालकुमारी कृष्णे आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत,तप,स्नान,मन्त्र,औषध,विद्याशक्ति,मूलशक्ति,जप,होम बताओ जो यश और सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला हो तथा जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे अधीन रहैं।
एवमुक्त्वा सत्यभामा विरराम यशस्विनी।
पतिव्रता महाभागा द्रौपदी प्रत्युवाच ताम्॥

ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा मौन हो गयीं। तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।
असत्स्त्रीणां समाचारं सत्ये मामनुपृच्छसि।
असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम्॥

सत्ये तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रही हो वह साध्वी स्त्रियों का नहीं दुराचारिणी स्त्रियों का आचरण है। जिस मार्ग का दुराचारिणी स्त्रियोने अवलम्बन किया है,उसके विषयमें हमलोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं।
अनुप्रश्नः संशयो या नैतत् त्वय्युपपद्यते।
तथा ह्युपेता युद्धया त्वं कृष्णस्य महिषी प्रिया॥

इस प्रकार का प्रश्न अथवा पति के स्नेहमें संदेह करना तुम्हारे जैसी साध्वी स्त्री के लिये कदापि उचित नहीं है। तुम बुद्धिमती होनेके साथ ही श्यामसुन्दर की प्रियतमा पटरानी हो।
यदैव भर्ता जानीयान्मन्त्रमूलपरां स्त्रियम्।
उद्विजेत तदैवास्याः सर्पाद् वेश्मगतादिव॥

जब पति को यह ज्ञान हो जाये के उसकी पत्नी उसे वशमें करने के लिये मन्त्रौषधि का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार उद्विग्न हो उठता है जैसे अपने घरमें घुसे हुये सर्प से लोग शङ्कित रहते हैं।
उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।
न जातु वशगोभर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकर्मणा॥

उद्विग्न को शान्ति कैसी और अशान्त को सुख कहाँ
अतः मन्त्रौषधि करने से पति अपनी पत्नी के वशमें कदापि नहीं हो सकता।
अमित्रप्रहितांश्चापि गदान् परमदारुणान्।
मूलप्रचारैर्हि विषै प्रयच्छन्ति जिघांसवः॥

इसके अतिरिक्त ऐसे अवसरों पर धोखे से शत्रुओं द्वारा भैजी हुई औषधियों को खिलाकर कितनी ही स्त्रियाँ अपने पतियों को अत्यन्त भयंकर रोगों से पीडित बना देती हैं।
किसी के मारनेकी इच्छावाले मनुष्य उसकी स्त्री के हाथ में यह प्रचार करते हुये विष दे देते हैं कि यह पतिको वशमें करनेवाली
औषधि है।

जिह्वया यानि पुरुषस्त्वचा वाप्युपसेवते।
तत्र चूर्णानि दत्तानि हन्युः क्षिप्रमसंशयम्॥
उनके चूर्ण ऐसे होते हैं कि उन्हैं पति यदि जिह्वा
अथवा त्वचा से भी स्पर्श कर ले, तो वे निःसेदैह
उसी क्षण उसके प्राण ले लें।
जलोदरसमायुक्ताः श्वित्रिणः पलितास्तथा।
अपुमांसः कृताः स्त्रीभिर्जडान्धबधिरास्तथा॥

कितनी ही स्त्रियों ने अपने पतियों को वश में
करने की आशा में हानिकारक औषधियाँ देकर
जलोदर, कोढादि का रोगी, असमय वृद्ध, नपुंसक,
अंधा, गूँगा और बहरा बना दिया।
पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत।
न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्ये कथंचन॥

इस प्रकार पापियों का अनुसरण करनेवाली वे
पापिनी स्त्रियाँ अपने पतियों को अनेक प्रकारकी
विपत्तियों में डाल देती हैं। अतः साध्वी स्त्री को चाहिये
कि वह कभी किसी प्रकार भी पतिका अप्रिय न करे।
वर्ताम्यहं तु यां वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु।
तां सर्वा श्रृणु में सत्यां सत्यभामे यशस्विनि॥

यशस्विनी सत्यभामे मैं स्वयं महात्मा पाण्डवोंके
साथ जैसा बर्ताव करती हूँ वह सब सच-सच सुनाती हूँ।

अहंकारं विहायाहं कामक्रोधौ च सर्वदा।
सदारान् पाण्डवान् नित्यं प्रयतोपचराम्यहम्॥
मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोडकर सदा पूरी
सावधानी के साथ सब पाण्डवोंकी और उनकी
अन्यान्य स्त्रियों की भी सेवा करती हूँ।

प्रणयं प्रतिसंहृत्य निधायात्मानमात्मनि।
शुश्रषुर्निरहेमाना पतीनां चित्तरक्षिणी॥
अपनी इच्छाओं का दमन करके मनको अपने आपमें ही समेटे हुये केवल
सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ।
अहंकार और अभिमानको अपने पास नहीं फटकने देती।
दुर्व्याहृताच्छङ्कमाना दुःस्थिताद् दुरवेक्षितात्।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताध्यासितादपि॥

कभी मेरे मुखसे कोई बुरी बात न निकल जाय
इसकी आशङ्कासे सदा सावधान रहती हूँ।
असभ्यकी भाँति कहीं खडी नहीं होती।
निर्लज्जकी तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती।
बुरी जगहपर नहीं बैठती। दुराचारसे बचती तथा
चलने फिरने में भी असभ्यता न हो जाय, इसके लिये
सतत सावधान रहती हूँ। पतियों के अभिप्रायपूर्ण सङ्केत सदैव
अनुसरण करती हूँ।
सूर्यवैश्वानरसमान् सोमकल्पान महारथान्।
सेवे चक्षुर्हणः पार्थानुग्रवीर्यप्रतापिनः॥
कुन्तीदेवी के पाँचों पुत्र ही मेरे पति हैं।
वे सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी,
चन्द्रमा के समान आह्लाद प्रदान करनेवाले
महारथी, दृष्टिमात्र से ही शत्रुओं को मारने की
शक्ति रखनेवाले तथा भयंकर बल-पराक्रम एवं
प्रतापसे युक्त हैं। मैं सदा उन्हीं के सेवामें लगी रहती हूँ।
देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः।
द्रव्यवानभिरूपो वा न में अन्यः पुरुषो मतः॥

देवता,मनुष्य,गन्धर्व,युवक,बडी सजधजवाला
धनवान् अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो,
मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता।
नाभुक्तवति नास्नाते नासंविष्टे च भर्तरि।
न संविशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि॥

पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराये बिना मैं
कभी भोजन नहीं करती, उन्हें नहलाये बिना कभी नहाती
नहीं हूँ तथा पतिदेव जबतक शयन न करें तबतक मैं सोती
भी नहीं हूँ।
क्षेत्राद् वनाद् या ग्रामाद् वा भर्तारं गृहमागतम्।
अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च॥

खेतसे, वनसे अथवा गाँव से जब कभी मेंरे पति घर
पधारते हैं उस समय मैं खडी होकर उनका अभिनंदन करती हूँ।
तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्वागत और सत्कार में
लग जाती हूँ।
प्रमृष्टभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी।
सेयता गुप्तधान्या च सुसम्मृष्टनिवेशना॥

मैं घर के बर्तनों को माँज धोकर साफ रखती हूँ।
शुद्ध एवं स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सबको ठीक
समयपर भोजन कराती हूँ।
मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर
घरमे गुप्तरूप से अनाज का संचय करती हूँ और घर की झाड-बुहार ,
लीप-पोतकर सदा स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ।

अतिरस्कृतसम्भाषा दुःस्त्रियो नानुसेवति।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा॥
मैं कोई ऐसी बात नहीं कहती जिससे किसी का
तिरस्कार होता हो। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा
दूर रहती हूँ। आलस्य को कभी पास नहीं आने देती
और सदैव पतियों के अनुकूल व्यवहार करती हूँ।
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये॥

पतिके किये हुये परिहास के अतिरिक्त अन्य समय में
मैं नहीं हँसा करती, द्वार पर बारम्बार नहीं खडी होती,
जहाँ कूडा इत्यादि होता है वहाँ देरतक नहीं रुकती
और उद्यान में बहुत समय तक अकेली नहीं घूमती हूँ।
अन्त्यालापमसंतोषं परव्यापार संकथाम्।
अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये।
निरताहं सदा सत्ये भर्तृणामुपसेवने॥
नीच पुरुषों से संवाद नहीं करती।
मन में असंतोष को स्थान नहीं देती और परायी
चर्चा से दूर रहती हूँ। न अधिक हँसती हूँ और न अधिक
क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती।
सदा सत्य बोलती हूँ और पतियों की सेवा में रहती हूँ।
सर्वथा भर्तृरहितं न ममेष्टं कथंचन।
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित्॥
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी।

पतिदेव के बिना मुझे किसी भी स्थान में
अकेले रहना प्रिय नहीं है। मेरे पति जब कुटुम्ब के कार्य से
परदेश चले जाते हैं तो उन दिनों मैं पुष्पों का श्रृङ्गार नहीं करती।
ब्रह्मचर्य का पालन करती हूँ व अङ्गराग नहीं लगाती।

यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न सेवते।
यच्च नाश्नाति में भर्ता सर्वे तद् वर्जयाम्यहम्।

मेरे पतिदेव जिस वस्तु को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते,
वह सब वस्तुये मैं भी त्याग देती हूँ।
यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने॥
स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता।
ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्वा में कथिताः पुरा॥
अनुतिष्ठामि तत् सर्वं नित्यकालमतन्द्रिता॥
सुन्दरी शास्त्रों में स्त्रियों के लिये जिन कर्तव्यों का उपदेश
किया गया है उन सभी का नियमपूर्वक पालन करती हूँ।
अपने अङ्गों को वस्त्राभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के
साथ मैं पति के प्रिय एवं हित साधन में संलग्न रहती हूँ।
मेरी सासने
अपने परिवार के लोगों के साथ बर्तावमे लाने योग्य जो धर्म पहले मुझे
बताये थे उन सबका मैं निरन्तर आलस्यरहित होकर पालन करती हूँ।
भिक्षाबलिश्राद्धमिति स्थालीपाकाश्च पर्वसु।
मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मम॥
तान् सर्वाननुवर्ते अहं दिवारात्रमतन्द्रिता।
विनयान् नियमांस्चैव सदा सर्वात्मना श्रिता॥

मैं दिन रात आलस्य का त्यागकर भिक्षादान,बलिवैश्वदेव,श्राद्ध,पर्वकालोचितस्थालीपाकयज्ञ,
मान्य पुरुषों का आदरसत्कार,विनय,नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका
सब प्रकारसे उद्यत होकर पालन करती हूँ।

मृदून् सतः सत्यशीलान् सत्यधर्मानुपालिनः।
आशीविषानिव क्रुद्धान पतीन् परिचराम्यहम्॥

मेरे पति बडे ही सज्जन और मृदु स्वाभाव के हैं।
सत्यवादि तथा सत्यधर्म का निरन्तर पालन करनेवाले हैं।
तथापि क्रोध में भरे हुये विषैले सर्पो से जिस प्रकार लोग
भयभीत होते हैं उसी प्रकार मैं अपने पतियों से डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ।
पत्याश्रयो हि में धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः।
स देवः सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत्॥
पतिके आश्रय में रहना ही स्त्रियों का
सनातनधर्म है। पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है।
पति के अतिरिक्त नारीका दूसरा कोई सहारा नहीं है ऐसे पतिदेवता का
भला कौन स्त्री अप्रिय करेगी।
अहं पतीन् नातिशये नात्यश्ने नातिभूषये।
नापि श्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ॥
पतियों के शयन करने पहले मैं कभी शयन नहीं करती
उनसे पहले भोजन नहीं करती। उनकी इच्छाके विरुद्ध कोई
आभूषण नहीं पहनती अपनी सासकी कभी निन्दा नहीं करती
और अपने-अपको सदा नियन्त्रण में रखती हूँ।
अवधानेन सुभगे नित्योत्थिततयैव च।
भर्तारा वशगा मह्यं गुरुशुश्रूषयैव च॥

मैं सावधानीसे सर्वदा सबेरे उठकर समुचित सेवाके लिये सन्नद्ध रहती हूँ।
गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं।
नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरसं सत्यवादिनीम्।
स्वयं परिचराम्येतां पानाच्छादनभोजनैः॥

मैं वीरजननी सत्यवादिनी आर्या कुन्तीदेवी की भोजन,वस्त्र और जल आदि से सदा स्वयं सेवा करती हूँ।
नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषणभोजनैः।
नापि परिवदे चाहं तां पृथां पृथिवीसमाम्॥

वस्त्र आभूषण और भोजन आदि में कभी सासकी
अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती।
मेरी सास कुन्ती देवी पृथ्वीके समान क्षमाशील हैं।
मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती।
अष्टावग्रे ब्राह्मणानां सहस्त्राणि स्म नित्यदा।
भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने॥

पहले महारज युधिष्ठिर के राजमहल में प्रतिदिन आठ हजार ब्राह्मण स्वर्ण पात्रों में भोजन करते थे।
अष्टाशीतिसहस्त्राणि स्नातका गृहमेधिनः।
त्रिंशद्दासीक एकैको यान् विभर्ति युधिष्ठिरः॥

महारज युधिष्ठिर के यहाँ अठ्ठासी हजार ऐसे स्नातक गृहस्थ थे
जिनका वे भरण-पोषण करते थे। उनमे से प्रत्येक के यहाँ तीस-तीस दासी कार्य करती रहती थी।
दशान्यानि सहस्त्राणि येषामन्नं सुसंस्कृतम्।
ह्लियते रुक्मपात्रीभिर्यतीनामूर्ध्वरेतसाम्॥

इनके अतिरिक्त दश सहस्त्र उर्ध्व रेता यति उनके यहाँ रहते थे
जिनके लिये सुन्दर रीति से तैयार किया हुआ अन्न सोने की थालियों में परोसकर पहुँचाया जाता था।
तान् सर्वानग्रहारेण ब्राह्मणान् वेदवादिनः।
यथार्हे पूजयामि स्म पानाच्छादनभोजनैः॥

मैं उन सभी वेदवादि ब्राह्मणों को अग्रहार(बलिवैश्वदेव के अन्त में अतिथिको दिया जानेवाला प्रथम अन्न)का अर्पण करके भोजन, वस्त्र और जल के द्वारा उनकी यथायोग्य पूजा करती थी।
शतं दासीसहस्त्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः।
कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलङ्कृताः॥

कुन्तीनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के एक लाख दासियाँ थी,
जो हाथों में शंखकी चूडियाँ भुजाओं में बाजूबंद और कण्ठमें
सुवर्णके हार पहनकर बडी साजसज्जा से युक्त होकर रहती थीं।
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः।
मणिन् हेम च बिभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः॥
उनकी मालायें और आभूषण बहुमूल्य थेअङ्गकान्ति बहुत सुन्दर थी
वे चन्दनमिश्रित जल से स्नान और चन्दन का अङ्गराग लगाती थीं
मणि-सुवर्ण के गहने पहना करती थीं नृत्य-गीत की कला में उनका कौशल देखने योग्य था।
तासां नाम च रूपं च भोजनाच्छादनानि च ।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम॥

उन सबके नाम रूप तथा भोजन आच्छादन आदि सभी बातों की मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्या काम किया और क्या नहीं किया यह विषय मुझसे छुपा हुआ नहीं रहता था।
शतं दासीसहस्त्राणि कुन्तीपुत्रस्य धीमतः।
पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीन् भोजयन्त्युत॥

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की पूर्वोक्त एक लाख दासियाँ थाली लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराती रहती थीं।
शतमश्वसहस्त्राणि दशनागायुतानि च ।
युधिष्ठिरस्यानुयात्रमिन्द्रप्रस्थनिवासिनः॥
एतदासीत् तदा राशो यन्महीं पर्यपालयत्।
येषां संख्याविधिं चैव प्रदिशामि श्रृणोमि च॥
जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर इस पृथ्वी का
पालन करते थे उस समय प्रत्येक यात्रा में उनके साथ एक लाख
घोडे और एक लाख हाथी चलते थे। मैं ही उनकी गणना करती आवश्यक
वस्तुयें देती और उनकी आवश्यकतायें सुनती थी।
अन्तःपुराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वे वेद कृताकृतम्॥
अन्तःपुरके नौकरों के तथा ग्वालों और गडरियों से लेकर
समस्त सेवकों के सभी कार्यों की देखभाल मैं ही करती थी
किसने क्या कार्य किया अथवा कौन सा कार्य अपूर्ण रह गया
इन विषयों पर मैं जानकारी रखती थी।
सर्वे राज्ञः समुदायमायं च व्ययमेव च।
एकाहं वेद्मि कल्याणि पाण्डवानां यशस्विनि॥

कल्याणी और यशस्विनी सत्यभामे महाराज तथा
अन्य पाण्डवों को जो कुछ आय,व्यय और बचत होती थी उस
सबका हिसाब मैं अकेली ही रखती और जानती थी।
मयि सर्वे समासज्य कुटुम्बं भरतर्षभाः।
उपासनारताः सर्वे घटयन्ति वरानने॥

वरानने भरतश्रेष्ठ पाण्डव कुटुम्बका सारा भार मुझपर ही रखकर
उपासना में रत रहते और तदनुरूप चेष्टा करते थे।
तमहं भारमासक्तमनाधृष्यं दुरात्मभिः।
सुखं सर्वे परित्यज्य रात्र्यहानि धटामि वै॥

मझपर जो भार रक्खा गया था उसे दुष्ट स्वाभाव के स्त्रीपुरुष वहन नहीं कर सकते थे। परंतु मैं सब प्रकार के सुख भोग का त्याग कर रातदिन उस दुर्वह भारको वहन करने की चेष्टा करती थी।
अधृष्यं वरुणस्येव निधिपूर्णाभिवोदधिम।
एकाहं वेद्मि कोशं वै पतीनां धर्मचारिणाम्॥

मेरे धर्मात्मा पतियों का पूरा कोष वरुण के भण्डार और परिपूर्ण महासागर के समान अक्षय एवं अगम्य था। केवल मैं ही उसके विषयकी ठीक जानकारी रखती थी।
अनिशायां निशायां च सहा या क्षुत्पिपासर्यः।
आराधयन्त्याः कौरव्यांस्तुल्या रात्रिरहश्च में॥

रात हो या दिन मैं सदा भूख-प्यास के कष्ट सहन करके निरन्तर कुरुकुलरत्न पाण्डवोंकी आराधनामें लगी रहती थी। इससे मेरे लिये दिन और रात समान हो गये थे।
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं संविशामि च।
नित्यकालमहं सत्ये एतत् संवननं मम॥

सत्ये मैं प्रतिदिन सबसे पहले उठती और सबसे
पीछे सोती थी। यह पतिभक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण
मन्त्र है।
एतज्जानाम्यहं कर्तु भर्तृसंवननं महत्।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यो न कामये॥

पति को वश में करने का यही सबसे महत्वपूर्ण उपाय मैं जानती हूँ।
दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायों का अवलम्बन करती हैं उन्हें न तो मैं करती हूँ और न ही चाहती हूँ।
॥वैशम्पायन उवाच॥

तच्च श्रुत्वा धर्मसहितं व्याहृतं कृष्णया तदा।
उवाच सत्या सत्कृत्य पाञ्चाली धर्मचारिणीम्॥
अभिपन्नास्मि पाञ्चालि याज्ञसेनि क्षमस्व में।
कामकारः सखीनां हि सोपहासं प्रभाषितम्॥
जन्मजेय द्रौपदीकी ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामाने
उस धर्मपरायणा पाञ्चालीका समादर करते हुये कहा पाञ्चालराजकुमारी
याज्ञसेनी मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ।
जो अनुचित प्रश्न मैंने किया उसके लिये मुझे क्षमा करदो। सखियों में परस्पर स्वेच्छापूर्वक ऐसी हास परिहास की बातें हो जाया करती हैं।

॥वनपर्व द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्व अध्याय २३३॥
द्रौपद्युवाच

इमं तु ते मार्गमपेतमोहं
वक्ष्यामि चित्तग्रहणाय भर्तुः।
अस्मिन यथावत् सखि वर्तमाना भर्तारमाच्छेत्स्यसि कामिनीभ्यः॥

सखी मैं स्वामी को मनका आकर्षण करने के लिये तुम्हें एक ऐसा मार्ग
बता रही हूँ जिसमे भ्रम अथवा छल-कपट लिये तनिक भी स्थान नहीं है।
यदि चित्त को अपनी सौतों से हटाकर अपनी ओर अवश्य खींच सकोगी।

नैतादृशं दैवतमस्ति सत्ये सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु।
यथा पतिस्तस्य तु सर्वकामा लभ्याः प्रसादात् कुपितश्च हन्यात्॥

सत्ये स्त्रियों के लिये देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में पति के समान दूसरा
कोई देवता नहीं है।
पति के प्रसाद से नारी की सम्पूर्ण कामनायें पूर्ण हो सकती हैं और यदि पति ही कुपित हो जाय तो वह नारीकी सभी आशाओं को नष्ट कर सकता है।

तस्मादपत्यं विविधाश्च भोगाः
शय्यासनान्युत्तमदर्शनानि।
वस्त्राणि माल्यानि तथैव गन्धाः
स्वर्गश्च लोको विपुला च कीर्तिः॥
सेवाद्वारा प्रसन्न किये हुये पतिसे स्त्रियोंको उत्तम संतान, भाँति भाँति के भोग
शय्या , आसन, सुन्दर दिखायी देनेवाले वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ, स्वर्गलोक तथा महान् यशकी प्राप्ति होती है।
सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि।
सा कृष्णमाराधय सौहृदेन प्रेम्णा च नित्यं प्रतिकर्मणा च॥
तथा आसनैश्चारुभिरप्रमाल्यैर्दाक्षिण्ययोगैर्विविधैश्च गन्धैः।
अस्याःप्रियो अस्मीति यथा विदित्वा त्वामेव संश्लिष्यति तद् विधत्स्व॥
सखी इस जगत में कभी सुखके द्वारा सुख नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री दुःख
उठाकर ही सुख पाती है। तुम सौहार्द, प्रेम, सुन्दर वेश भूषा धारण , सुन्दर
आसन समर्पण, मनोहर पुष्पमाला, उदारता, सुगन्धित द्रव्य एवं व्यवहारकुशलतासे श्यामसुन्दर की निरन्तर आराधना करती रहो।
उनके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वे यह समझकर कि सत्यभामा को मैं ही अधिक प्रिय हूँ तुम्हें ही हृदय लगाया करें।

श्रुत्वा स्वरं द्वारगतस्य भर्तुः प्रत्युत्थिता तिष्ठ गृहस्य मध्ये ।
दृष्ट्वा प्रविष्टं त्वरिताआसनेन पाद्येन चैनं प्रतिपूजयस्व॥
जब महलके द्वारपर पधारे हुये प्राणवल्लभका स्वर सुनायी पडे। तब तुम उठकर घरके आँगनमें आ जाओ और उनकी प्रतीक्षामें खडी रहो। जब देखो कि वे भीतर आ गये तब तुरंत आसन और पाद्यके द्वारा उनका यथावत् पूजन करो।
सम्प्रेषितायामथ चैव दास्यामुत्थाय सर्वे स्वयमेव कार्यम्।
जानातु कृष्णस्तव भावमेतं सर्वात्मना मां भजतीति सत्ये॥

सत्ये यदि श्यामसुन्दर किसी कार्य के लिये दासी को भेजते हो, तो तुम्हें स्वयं उठकर वह सब काम कर लेना चाहिये। जिससे श्रीकृष्णको तुम्हारे
इस सेवा भावका अनुभव हो जाय कि सत्यभामा सम्पूर्ण हृदय से मेंरी सेवा करती है।
त्वत्संनिधौ यत् कथयेत् पतिस्ते
यद्यप्यगुह्यं परिरक्षितव्यम्।
काचित् सपत्नी तव वासुदेवं प्रत्यादिशेत तेन भवेद् विरागः॥
तुम्हारे पति तुम्हारे निकट जो भी बात कहें वह छिपाने योग्य न हो तो भी तुम्हें उसे गुप्त ही रखना चाहिये। अन्यथा तुम्हारे मुख से उस बात को सुनकर यदि कोई सौत उसे श्यामसुन्दरके सामने कह दे, तो इससे उनके मन में तुम्हारी ओरसे विरक्ति हो सकती है।
प्रियांश्च रक्तांश्च हितांश्च भर्तुस्तान भोजयेथा विविधैरुपायैः।
द्वेष्यैरुपेक्ष्यैरहितैश्च तस्य भिद्यस्व नित्यं कुहकोद्यतैश्च ॥
पतिदेव के जो प्रिय, अनुरक्त एवं हितैषी सुहृद् हों, उन्हें तरह-तरह के
उपायों से खिलाओ-पिलाओ तथा जो उनके शत्रु , उपेक्षणीय और अहितकारक हौं अथवा जो उनसे छलकपट करने के लिये उद्यत हों उनसे सदा दूर रहो।
मदं प्रमादं पुरुषेषु हित्वा संयच्छ भावं प्रतिगृह्य मौनम्।
प्रद्युम्नसाम्बवपि ते कुमारौ नौपासितव्यौ रहिते कदाचित्॥
दूसरे पुरुषोंके समीप घमंड और प्रमादका परित्याग करके मौन रहकर अपने मनोभावको प्रकट न होने दो। कुमार प्रद्युम्न और साम्ब यद्यपि तुम्हारे पुत्र हैं तथापि तुम्हैं एकान्त में कभी उनके पास भी नहीं बैठना चाहिये।
महाकुलीनाभिरपापिकाभिः स्त्रीभिः सतीभिस्तव सख्यमस्तु।
चण्डाश्च शौण्डाश्च महाशनाश्च चौराश्च दुष्टाश्चपलाश्च वर्ज्याः॥
अत्यन्त ऊँचे कुलमें उत्पन्न और पापाचारसे दूर रहनेवाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्हैं सखीभाव स्थापित करना चाहिये। जो अत्यन्त क्रोधी, मद में रहनेवाली, अधिक खानेवाली, चोरीकी लत रखनेवाली दुष्ट और चञ्चल स्वाभावकी स्त्रियाँ हौं उन्हें दूरसे ही त्याग देना चाहिये।
एतद् यशस्यं भगदैवतं च स्वार्थ्ये तथा शत्रुनिबर्हणं च।
महार्हमाल्याभरणाङ्गरागा भर्तारमाराधय पुण्यगन्धा॥
तुम बहुमूल्य हार , आभूषण और अङ्गराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्तुओं से सुवासित हों अपने प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की आराधना करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी। तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि तथा शत्रुओं का नाश होगा।

॥वनपर्व दौपदीसत्यभामासंवादपर्व अध्याय २३४॥

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Dec 21
।।श्रीगणाधीशस्तोत्रं।।

नमस्ते गणनाथाय गणानां पतये नमः।
भक्तिप्रियाय देवेश भक्तेभ्यः सुखदायक॥ १॥
स्वानन्दवासिने तुभ्यं सिद्धिबुद्धिवराय च।
नाभिशेषाय देवाय ढुण्ढिराजाय ते नमः॥ २॥
वरदाभयहस्ताय नमः परशुधारिणे।
नमस्ते सृणिहस्ताय नाभिशेषाय ते नमः॥ ३॥
अनामयाय सर्वाय सर्वपूज्याय ते नमः।
सगुणाय नमस्तुभ्यं ब्रह्मणे निर्गुणाय च॥ ४॥
ब्रह्मभ्यो ब्रह्मदात्रे च गजानन नमोऽस्तु ते।
आदिपूज्याय ज्येष्ठाय ज्येष्ठराजाय ते नमः॥ ५॥
मात्रे पित्रे च सर्वेषां हेरम्बाय नमो नमः।
अनादये च विघ्नेश विघ्नकर्त्रे नमो नमः॥ ६॥
Read 5 tweets
Dec 20
।श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ।

दुर्गा शिवा महालक्ष्मीर्महागौरी च चण्डिका।
सर्वज्ञा सर्वलोकेशा सर्वकर्मफलप्रदा॥ १ ॥
सर्वतीर्थमया पुण्या देवयोनिरयोनिजा।
भूमिजा निर्गुणा चैवाधारशक्तिरनीश्वरा॥ २ ॥
निर्गुणा निरहङ्कारा सर्वगर्वविमर्दिनी।
सर्वलोकप्रिया वाणी सर्वविद्याधिदेवता॥ ३ ॥
पार्वती देवमाता च वनीशा विन्ध्यवासिनी।
तेजोवती महामाता कोटिसूर्यसमप्रभा॥ ४ ॥
देवता वह्निरूपा च सदौजा वर्णरूपिणी।
गुणाश्रया गुणमयी गुणत्रयविवर्जिता॥ ५ ॥
कर्मज्ञानप्रदा कान्ता सर्वसंहारकारिणी।
धर्मज्ञाना धर्मनिष्ठा सर्वकर्मविवर्जिता॥ ६ ॥
Read 7 tweets
Dec 19
।।श्रीहरिशङ्करस्तोत्र।।

मत्स्यं नमस्ये देवेशं कूर्मं देवेशमेव च।
हयशीर्षं नमस्येऽहं भवं विष्णुं त्रिविक्रमम्॥
नमस्ये माधवेशानौ हृषीकेषकुमारिलौ।
नारायणं नमस्येऽहं नमस्ते गरुडासनम्॥
जयेशं नरसिंहं च रूपधारं कुरुध्वजम्।
कामपालमखण्डं च नमस्ये ब्राह्मणप्रियम्॥
अजितं विश्वकर्माणं पुण्डरीकं द्विजप्रियम्।
हरिं शम्भुं नमस्ये च ब्रह्माणं सप्रजापतिम्॥
नमस्ये शूलबाहुं च देवं चक्रधरं तथा।
शिवं विष्णुं सुवर्णाक्षं गोपतिं पीतवाससम्॥
नमस्ये च गदापाणिं नमस्ये च कुशेशयम्।
अर्धनारीश्वरं देवं नमस्ये पापनाशनम्॥
गोपालं च सवैकुण्ठं नमस्ये चापधारिणम्।
नमस्ये विष्णुरूपं च ज्येष्ठेशं पञ्चमं तथा॥
उपशान्तं नमस्येऽहं मार्कण्डेयं सजम्बुकम्।
नमस्ये पद्मकिरणं नमस्ये वडवामुखम्॥
कार्त्तिकेयं नमस्येऽहं बाह्लिकं शङ्खिनं तथा।
नमस्ये पद्मकिरणं नमस्ये च कुशेशयम्॥
Read 9 tweets
Dec 3
।।श्रीमद्भगवतगीताप्राकट्योत्सव।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।८-१३।।

जो साधक 'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।
He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the eternal bliss.
अर्जुन उवाच

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।११-३६।।
अर्जुन बोले - हे अन्तर्यामी भगवन् आपके नाम, गुण, लीलाका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग को प्राप्त हो रहा है।
Read 17 tweets
Dec 1
।।श्रीकृष्णाष्टक।।

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ १॥
अतसीपुष्पसङ्काशम् हारनूपुरशोभितम्।
रत्नकङ्कणकेयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ २॥
कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्रनिभाननम्।
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ३॥
मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम्।
बर्हिपिच्छावचूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ४॥
उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम्।
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ५॥
रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीताम्बरसुशोभितम्।
अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ६॥
गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुङ्कुमाङ्कितवक्षसम्।
श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ ७॥
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Nov 30
#काव्यरश्मि
रचना - जयद्रथवध प्रथमसर्ग प्रथम भाग।
रचनाकार - मैथिली शरण गुप्त

वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।
Read 8 tweets

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