जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
राजेन्द्र
दोनों एक दूसरे को बहुत समय पश्चात देखा था इस कारण परस्पर प्रिय
लगनेवाली बातें करती हुई वहाँ सुखपूर्वक बैठी रहीं।
कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरु यदुत्थिताः।
अथाब्रवीत् सत्यभामा कृष्णस्य महिषी प्रिया॥
सात्राजिती याज्ञसेनीं रहसीदं सुमध्यमा।
केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानधितिष्ठसि॥
लोकपालोपमान् वीरान् पुनः परमसंहतान्।
कथं च वशगास्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे॥
कुरुकुल और यदुकुल से संबंध रखनेवाली अनेक विचित्र बातें उनकी
चर्चा का विषय थी। भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय पटरानी सुन्दरी सत्यभामाने
एकान्तमें द्रौपदी से इस प्रकार पूछा --
शुभे द्रपदकुमारि किस व्यवहार से
तुम हृष्टपुष्ट अङ्गोंवाले तथा लोकपालों के समान वीर पाण्डवों हृदयपर अधिकार रखती हो। किस प्रकार वे तुम्हारे वशमें रहते हुये कभी तुम पर कुपित नहीं होते हैं।
तव वश्या हि सततं पाणडवः प्रियदर्शने।
मुख्यप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्वमेतद् ब्रवीहि में॥
प्रियदर्शने क्या कारण है के पाण्डव सदैव तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब के सब तुम्हारे मुख की ओर देखते रहते हैं इसका यथार्थ रहस्य क्या है।
पाञ्चालकुमारी कृष्णे आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत,तप,स्नान,मन्त्र,औषध,विद्याशक्ति,मूलशक्ति,जप,होम बताओ जो यश और सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला हो तथा जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे अधीन रहैं।
ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा मौन हो गयीं। तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।
असत्स्त्रीणां समाचारं सत्ये मामनुपृच्छसि।
असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम्॥
सत्ये तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रही हो वह साध्वी स्त्रियों का नहीं दुराचारिणी स्त्रियों का आचरण है। जिस मार्ग का दुराचारिणी स्त्रियोने अवलम्बन किया है,उसके विषयमें हमलोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं।
अनुप्रश्नः संशयो या नैतत् त्वय्युपपद्यते।
तथा ह्युपेता युद्धया त्वं कृष्णस्य महिषी प्रिया॥
इस प्रकार का प्रश्न अथवा पति के स्नेहमें संदेह करना तुम्हारे जैसी साध्वी स्त्री के लिये कदापि उचित नहीं है। तुम बुद्धिमती होनेके साथ ही श्यामसुन्दर की प्रियतमा पटरानी हो।
जब पति को यह ज्ञान हो जाये के उसकी पत्नी उसे वशमें करने के लिये मन्त्रौषधि का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार उद्विग्न हो उठता है जैसे अपने घरमें घुसे हुये सर्प से लोग शङ्कित रहते हैं।
उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।
न जातु वशगोभर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकर्मणा॥
उद्विग्न को शान्ति कैसी और अशान्त को सुख कहाँ
अतः मन्त्रौषधि करने से पति अपनी पत्नी के वशमें कदापि नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त ऐसे अवसरों पर धोखे से शत्रुओं द्वारा भैजी हुई औषधियों को खिलाकर कितनी ही स्त्रियाँ अपने पतियों को अत्यन्त भयंकर रोगों से पीडित बना देती हैं।
किसी के मारनेकी इच्छावाले मनुष्य उसकी स्त्री के हाथ में यह प्रचार करते हुये विष दे देते हैं कि यह पतिको वशमें करनेवाली
औषधि है।
कितनी ही स्त्रियों ने अपने पतियों को वश में
करने की आशा में हानिकारक औषधियाँ देकर
जलोदर, कोढादि का रोगी, असमय वृद्ध, नपुंसक,
अंधा, गूँगा और बहरा बना दिया।
पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत।
न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्ये कथंचन॥
इस प्रकार पापियों का अनुसरण करनेवाली वे
पापिनी स्त्रियाँ अपने पतियों को अनेक प्रकारकी
विपत्तियों में डाल देती हैं। अतः साध्वी स्त्री को चाहिये
कि वह कभी किसी प्रकार भी पतिका अप्रिय न करे।
अपनी इच्छाओं का दमन करके मनको अपने आपमें ही समेटे हुये केवल
सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ।
अहंकार और अभिमानको अपने पास नहीं फटकने देती।
कभी मेरे मुखसे कोई बुरी बात न निकल जाय
इसकी आशङ्कासे सदा सावधान रहती हूँ।
असभ्यकी भाँति कहीं खडी नहीं होती।
निर्लज्जकी तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती।
बुरी जगहपर नहीं बैठती। दुराचारसे बचती तथा
चलने फिरने में भी असभ्यता न हो जाय, इसके लिये
सतत सावधान रहती हूँ। पतियों के अभिप्रायपूर्ण सङ्केत सदैव
अनुसरण करती हूँ।
कुन्तीदेवी के पाँचों पुत्र ही मेरे पति हैं।
वे सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी,
चन्द्रमा के समान आह्लाद प्रदान करनेवाले
महारथी, दृष्टिमात्र से ही शत्रुओं को मारने की
शक्ति रखनेवाले तथा भयंकर बल-पराक्रम एवं
प्रतापसे युक्त हैं। मैं सदा उन्हीं के सेवामें लगी रहती हूँ।
देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः।
द्रव्यवानभिरूपो वा न में अन्यः पुरुषो मतः॥
देवता,मनुष्य,गन्धर्व,युवक,बडी सजधजवाला
धनवान् अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो,
मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता।
नाभुक्तवति नास्नाते नासंविष्टे च भर्तरि।
न संविशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि॥
पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराये बिना मैं
कभी भोजन नहीं करती, उन्हें नहलाये बिना कभी नहाती
नहीं हूँ तथा पतिदेव जबतक शयन न करें तबतक मैं सोती
भी नहीं हूँ।
क्षेत्राद् वनाद् या ग्रामाद् वा भर्तारं गृहमागतम्।
अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च॥
खेतसे, वनसे अथवा गाँव से जब कभी मेंरे पति घर
पधारते हैं उस समय मैं खडी होकर उनका अभिनंदन करती हूँ।
तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्वागत और सत्कार में
लग जाती हूँ।
प्रमृष्टभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी।
सेयता गुप्तधान्या च सुसम्मृष्टनिवेशना॥
मैं घर के बर्तनों को माँज धोकर साफ रखती हूँ।
शुद्ध एवं स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सबको ठीक
समयपर भोजन कराती हूँ।
मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर
घरमे गुप्तरूप से अनाज का संचय करती हूँ और घर की झाड-बुहार ,
लीप-पोतकर सदा स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ।
मैं कोई ऐसी बात नहीं कहती जिससे किसी का
तिरस्कार होता हो। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा
दूर रहती हूँ। आलस्य को कभी पास नहीं आने देती
और सदैव पतियों के अनुकूल व्यवहार करती हूँ।
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये॥
पतिके किये हुये परिहास के अतिरिक्त अन्य समय में
मैं नहीं हँसा करती, द्वार पर बारम्बार नहीं खडी होती,
जहाँ कूडा इत्यादि होता है वहाँ देरतक नहीं रुकती
और उद्यान में बहुत समय तक अकेली नहीं घूमती हूँ।
अन्त्यालापमसंतोषं परव्यापार संकथाम्।
अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये।
निरताहं सदा सत्ये भर्तृणामुपसेवने॥
नीच पुरुषों से संवाद नहीं करती।
मन में असंतोष को स्थान नहीं देती और परायी
चर्चा से दूर रहती हूँ। न अधिक हँसती हूँ और न अधिक
क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती।
सदा सत्य बोलती हूँ और पतियों की सेवा में रहती हूँ।
पतिदेव के बिना मुझे किसी भी स्थान में
अकेले रहना प्रिय नहीं है। मेरे पति जब कुटुम्ब के कार्य से
परदेश चले जाते हैं तो उन दिनों मैं पुष्पों का श्रृङ्गार नहीं करती।
ब्रह्मचर्य का पालन करती हूँ व अङ्गराग नहीं लगाती।
यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न सेवते।
यच्च नाश्नाति में भर्ता सर्वे तद् वर्जयाम्यहम्।
मेरे पतिदेव जिस वस्तु को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते,
वह सब वस्तुये मैं भी त्याग देती हूँ।
यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने॥
स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता।
ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्वा में कथिताः पुरा॥
अनुतिष्ठामि तत् सर्वं नित्यकालमतन्द्रिता॥
सुन्दरी शास्त्रों में स्त्रियों के लिये जिन कर्तव्यों का उपदेश
किया गया है उन सभी का नियमपूर्वक पालन करती हूँ।
अपने अङ्गों को वस्त्राभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के
साथ मैं पति के प्रिय एवं हित साधन में संलग्न रहती हूँ।
मेरी सासने
अपने परिवार के लोगों के साथ बर्तावमे लाने योग्य जो धर्म पहले मुझे
बताये थे उन सबका मैं निरन्तर आलस्यरहित होकर पालन करती हूँ।
भिक्षाबलिश्राद्धमिति स्थालीपाकाश्च पर्वसु।
मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मम॥
तान् सर्वाननुवर्ते अहं दिवारात्रमतन्द्रिता।
विनयान् नियमांस्चैव सदा सर्वात्मना श्रिता॥
मैं दिन रात आलस्य का त्यागकर भिक्षादान,बलिवैश्वदेव,श्राद्ध,पर्वकालोचितस्थालीपाकयज्ञ,
मान्य पुरुषों का आदरसत्कार,विनय,नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका
सब प्रकारसे उद्यत होकर पालन करती हूँ।
सत्यवादि तथा सत्यधर्म का निरन्तर पालन करनेवाले हैं।
तथापि क्रोध में भरे हुये विषैले सर्पो से जिस प्रकार लोग
भयभीत होते हैं उसी प्रकार मैं अपने पतियों से डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ।
पत्याश्रयो हि में धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः।
स देवः सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत्॥
पतिके आश्रय में रहना ही स्त्रियों का
सनातनधर्म है। पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है।
पति के अतिरिक्त नारीका दूसरा कोई सहारा नहीं है ऐसे पतिदेवता का
भला कौन स्त्री अप्रिय करेगी।
अहं पतीन् नातिशये नात्यश्ने नातिभूषये।
नापि श्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ॥
पतियों के शयन करने पहले मैं कभी शयन नहीं करती
उनसे पहले भोजन नहीं करती। उनकी इच्छाके विरुद्ध कोई
आभूषण नहीं पहनती अपनी सासकी कभी निन्दा नहीं करती
और अपने-अपको सदा नियन्त्रण में रखती हूँ।
वस्त्र आभूषण और भोजन आदि में कभी सासकी
अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती।
मेरी सास कुन्ती देवी पृथ्वीके समान क्षमाशील हैं।
मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती।
मैं उन सभी वेदवादि ब्राह्मणों को अग्रहार(बलिवैश्वदेव के अन्त में अतिथिको दिया जानेवाला प्रथम अन्न)का अर्पण करके भोजन, वस्त्र और जल के द्वारा उनकी यथायोग्य पूजा करती थी।
कुन्तीनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के एक लाख दासियाँ थी,
जो हाथों में शंखकी चूडियाँ भुजाओं में बाजूबंद और कण्ठमें
सुवर्णके हार पहनकर बडी साजसज्जा से युक्त होकर रहती थीं।
महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः।
मणिन् हेम च बिभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः॥
उनकी मालायें और आभूषण बहुमूल्य थेअङ्गकान्ति बहुत सुन्दर थी
वे चन्दनमिश्रित जल से स्नान और चन्दन का अङ्गराग लगाती थीं
मणि-सुवर्ण के गहने पहना करती थीं नृत्य-गीत की कला में उनका कौशल देखने योग्य था।
तासां नाम च रूपं च भोजनाच्छादनानि च ।
सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम॥
उन सबके नाम रूप तथा भोजन आच्छादन आदि सभी बातों की मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्या काम किया और क्या नहीं किया यह विषय मुझसे छुपा हुआ नहीं रहता था।
जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर इस पृथ्वी का
पालन करते थे उस समय प्रत्येक यात्रा में उनके साथ एक लाख
घोडे और एक लाख हाथी चलते थे। मैं ही उनकी गणना करती आवश्यक
वस्तुयें देती और उनकी आवश्यकतायें सुनती थी।
अन्तःपुराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः।
आगोपालाविपालेभ्यः सर्वे वेद कृताकृतम्॥
अन्तःपुरके नौकरों के तथा ग्वालों और गडरियों से लेकर
समस्त सेवकों के सभी कार्यों की देखभाल मैं ही करती थी
किसने क्या कार्य किया अथवा कौन सा कार्य अपूर्ण रह गया
इन विषयों पर मैं जानकारी रखती थी।
मझपर जो भार रक्खा गया था उसे दुष्ट स्वाभाव के स्त्रीपुरुष वहन नहीं कर सकते थे। परंतु मैं सब प्रकार के सुख भोग का त्याग कर रातदिन उस दुर्वह भारको वहन करने की चेष्टा करती थी।
सत्ये मैं प्रतिदिन सबसे पहले उठती और सबसे
पीछे सोती थी। यह पतिभक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण
मन्त्र है।
एतज्जानाम्यहं कर्तु भर्तृसंवननं महत्।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यो न कामये॥
पति को वश में करने का यही सबसे महत्वपूर्ण उपाय मैं जानती हूँ।
दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायों का अवलम्बन करती हैं उन्हें न तो मैं करती हूँ और न ही चाहती हूँ।
जन्मजेय द्रौपदीकी ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामाने
उस धर्मपरायणा पाञ्चालीका समादर करते हुये कहा पाञ्चालराजकुमारी
याज्ञसेनी मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ।
जो अनुचित प्रश्न मैंने किया उसके लिये मुझे क्षमा करदो। सखियों में परस्पर स्वेच्छापूर्वक ऐसी हास परिहास की बातें हो जाया करती हैं।
सेवाद्वारा प्रसन्न किये हुये पतिसे स्त्रियोंको उत्तम संतान, भाँति भाँति के भोग
शय्या , आसन, सुन्दर दिखायी देनेवाले वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ, स्वर्गलोक तथा महान् यशकी प्राप्ति होती है।
सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि।
सा कृष्णमाराधय सौहृदेन प्रेम्णा च नित्यं प्रतिकर्मणा च॥
तथा आसनैश्चारुभिरप्रमाल्यैर्दाक्षिण्ययोगैर्विविधैश्च गन्धैः।
अस्याःप्रियो अस्मीति यथा विदित्वा त्वामेव संश्लिष्यति तद् विधत्स्व॥
सखी इस जगत में कभी सुखके द्वारा सुख नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री दुःख
उठाकर ही सुख पाती है। तुम सौहार्द, प्रेम, सुन्दर वेश भूषा धारण , सुन्दर
आसन समर्पण, मनोहर पुष्पमाला, उदारता, सुगन्धित द्रव्य एवं व्यवहारकुशलतासे श्यामसुन्दर की निरन्तर आराधना करती रहो।
उनके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वे यह समझकर कि सत्यभामा को मैं ही अधिक प्रिय हूँ तुम्हें ही हृदय लगाया करें।
जब महलके द्वारपर पधारे हुये प्राणवल्लभका स्वर सुनायी पडे। तब तुम उठकर घरके आँगनमें आ जाओ और उनकी प्रतीक्षामें खडी रहो। जब देखो कि वे भीतर आ गये तब तुरंत आसन और पाद्यके द्वारा उनका यथावत् पूजन करो।
तुम्हारे पति तुम्हारे निकट जो भी बात कहें वह छिपाने योग्य न हो तो भी तुम्हें उसे गुप्त ही रखना चाहिये। अन्यथा तुम्हारे मुख से उस बात को सुनकर यदि कोई सौत उसे श्यामसुन्दरके सामने कह दे, तो इससे उनके मन में तुम्हारी ओरसे विरक्ति हो सकती है।
पतिदेव के जो प्रिय, अनुरक्त एवं हितैषी सुहृद् हों, उन्हें तरह-तरह के
उपायों से खिलाओ-पिलाओ तथा जो उनके शत्रु , उपेक्षणीय और अहितकारक हौं अथवा जो उनसे छलकपट करने के लिये उद्यत हों उनसे सदा दूर रहो।
दूसरे पुरुषोंके समीप घमंड और प्रमादका परित्याग करके मौन रहकर अपने मनोभावको प्रकट न होने दो। कुमार प्रद्युम्न और साम्ब यद्यपि तुम्हारे पुत्र हैं तथापि तुम्हैं एकान्त में कभी उनके पास भी नहीं बैठना चाहिये।
अत्यन्त ऊँचे कुलमें उत्पन्न और पापाचारसे दूर रहनेवाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्हैं सखीभाव स्थापित करना चाहिये। जो अत्यन्त क्रोधी, मद में रहनेवाली, अधिक खानेवाली, चोरीकी लत रखनेवाली दुष्ट और चञ्चल स्वाभावकी स्त्रियाँ हौं उन्हें दूरसे ही त्याग देना चाहिये।
एतद् यशस्यं भगदैवतं च स्वार्थ्ये तथा शत्रुनिबर्हणं च।
महार्हमाल्याभरणाङ्गरागा भर्तारमाराधय पुण्यगन्धा॥
तुम बहुमूल्य हार , आभूषण और अङ्गराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्तुओं से सुवासित हों अपने प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की आराधना करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी। तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि तथा शत्रुओं का नाश होगा।
॥वनपर्व दौपदीसत्यभामासंवादपर्व अध्याय २३४॥
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दुर्गा शिवा महालक्ष्मीर्महागौरी च चण्डिका।
सर्वज्ञा सर्वलोकेशा सर्वकर्मफलप्रदा॥ १ ॥
सर्वतीर्थमया पुण्या देवयोनिरयोनिजा।
भूमिजा निर्गुणा चैवाधारशक्तिरनीश्वरा॥ २ ॥
निर्गुणा निरहङ्कारा सर्वगर्वविमर्दिनी।
सर्वलोकप्रिया वाणी सर्वविद्याधिदेवता॥ ३ ॥
पार्वती देवमाता च वनीशा विन्ध्यवासिनी।
तेजोवती महामाता कोटिसूर्यसमप्रभा॥ ४ ॥
देवता वह्निरूपा च सदौजा वर्णरूपिणी।
गुणाश्रया गुणमयी गुणत्रयविवर्जिता॥ ५ ॥
कर्मज्ञानप्रदा कान्ता सर्वसंहारकारिणी।
धर्मज्ञाना धर्मनिष्ठा सर्वकर्मविवर्जिता॥ ६ ॥
जो साधक 'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।
He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the eternal bliss.
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।११-३६।।
अर्जुन बोले - हे अन्तर्यामी भगवन् आपके नाम, गुण, लीलाका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग को प्राप्त हो रहा है।
#काव्यरश्मि
रचना - जयद्रथवध प्रथमसर्ग प्रथम भाग।
रचनाकार - मैथिली शरण गुप्त
वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।