राजन् उस यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण यमराज ने मानवप्रजाकी मृत्यु का कार्य
स्थगित कर दिया था
इस प्रकार मृत्यु का नियत समय बीत जाने से सारी प्रजा अमर
होकर दिनों दिन बढने लगी। धीरे धीरे उसकी संख्या बहुत बढ गयी।
सोमश्च शक्रो वरुणः कुबेरः साध्या रुद्रा वसवो
अथाश्विनौ च।
प्रजापतिर्भुवनस्य प्रणेता समाजग्मुस्तत्र देवास्तथान्ये॥
ततो अब्रुवन लोकगुरुं समेता भयात् तीव्रान्मानुषाणां च वृद्ध्या।
तस्माद् भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम्॥
चन्द्रमा इन्द्र वरुण कुबेर साध्यगण रुद्रगण वसुगण दोनों अश्विनीकुमार
तथा अन्य देवता मिलकर जहाँ सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्माजी निवास करते थे
वहाँ गये वहाँ जाकर वे सब देवता लोकगुरु ब्रह्माजी से बोले
भगवन् मनुष्यो की संख्या बहुत बढ रही है इससे हमें बड़ा भय लगता है
उस भयसे हम सभी व्याकुल हो उठे हैं और सुख पाने की इच्छासे आपकी
शरण में आये हैं।
तुम्हें मनुष्यों से क्यों भय लगता है जब
कि तुम सभी लोग अमर हो तब तुम्हे मरणधर्मा
मनुष्योंसे कभी भयभीत नहीं होना चाहिये।
देवा ऊचुः
मर्त्या अमर्त्याः संवृत्ता न विशेषो अस्ति कश्चन।
अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः॥
जो मरणशील थे वे अमर हो गये अब हममे और उनमे कोई भेद नहीं रह गया।
यह अन्तर मिट जानेसे ही हमें अधिक घबराहट हो रही है। हमारी विशेषता बनी रहे
इस कारण हम यहाँ आये हैं।
सूर्यपुत्र यमराज यज्ञ के कार्यमें लगे हैं इसीलिये ये मनुष्य मर नहीं रहे हैं
जब वे यज्ञ का सारा काम पूरा करके इधर ध्यान देंगे तब इन मनुष्योंका अन्तकाल
उपस्थित होगा। तुमलोगो के बल के प्रभाव से जब सूर्यनन्दन यमराज शरीर यज्ञ
कार्य से अलग होकर मनुष्यों की मृत्यु का कारण बनेगा।
उस समय मनुष्यों में इतनी
शक्ति नहीं होगी कि वे मृत्यु से अपने को बचा सकें।
राजन तब वे अपने पूर्वज देवता ब्रह्माजी का वचन सुनकर फिर
वहीं चले गये जहाँ सब देवता यज्ञ कर रहे थे । एक दिन वे सभी महाबली
देवगण गङ्गाजी में स्नान करने के लिये गये और वहाँ तटपर बैठे उसी समय उन्हेंं
भागीरथीके जलमे बहता हुआ एक कमल दिखायी दिया।
दृष्ट्वा च तद् विस्मितास्ते बभूवस्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम।
सो अपश्यद् योषामथ पावकप्रभां यत्र देवी गङ्गा सततं प्रभुता॥
उसे देखकर वे सब देवता चकित हो गये। उनमें सबसे प्रधान और शूरवीर इन्द्र
उस कमलका पता लगाने के लिये गङ्गाजी के स्थान की ओर गये ।
गङ्गोत्तरी के पास जहाँ गङ्गादेवी का जल सदा अविच्छिन्नरूपसे झरता रहता है
वहाँ पहुँचकर इन्द्रने एक अग्निके समान तेजस्विनी युवती देखी।
वह युवती वहाँ जलके लिये आयी थी और भगवती गङ्गा की धारा में प्रवेश करके
रोती हुई खडी थी। उसके आँसुओका एक एक बिन्दु जो जल में गिरता था वहाँ
सुवर्णमय कमल बन जाता था।
यह अद्भुत दृश्य देखकर वज्रधारी इन्द्रने उस समय उस युवती के
निकट जाकर पूछा मद्रे तुम कौन हो और किसलिये रोती हो बताओ मैं तुमसे सच्ची
बात जानना चाहता हूँ।
देवराज इन्द्र मैं एक भाग्यहीन अबला हूँ कौन हूँ और किसलिये रो रही हूँ
यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ मैं आगे आगे चल रही हूँ
वहाँ चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किसलिये रोती हूँ।
राजन् यों कहकर आगे आगे जाती हुई उस स्त्रीके पीछे पीछे
उस समय इन्द्र भी गये।
गिरिराज हिमालयके शिखरपर पहुँचकर उन्होंने
देखा पास ही एक परम सुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासनसे बैठे हैं उनके साथ एक
युवती भी है। इन्द्र ने उस युवतीके साथ उन्हें क्रीडा विनोद करते देखा।
इन्द्र को क्रोध में भरा देख वे देवपुरुष हँस पडे। उन्होंने धीरेसे आँख
उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पडते ही देवराज इन्द्रका शरीर
स्तम्भित हो गया । वे ठूँठे कालकी भाँति निश्चेष्ट हो गये।
जब उनकी वह क्रीडा समाप्त हुई तब वे उस रोती हुई देवीसे बोले
इस इन्द्र को जहाँ मैं हूँ यहीं मेरे समीप ले आओ जिससे फिर इसके भीतर
अभिमानका प्रवेश न हो।
तदनन्तर उस स्त्रीने ज्यों ही इन्द्रका स्पर्श किया उसके सारे
अङ्ग शिथिल हो गये और वे धरतीपर गिर पडे ।
तब उग्र तेजस्वी
भगवान रुद्र ने उनसे कहा इन्द्र फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमण्ड नहीं करना।
निवर्तयैनं च महाद्रिराज बलं च वीर्ये च तवाप्रमेयम्।
छिद्रस्य चैवाविश मध्यमस्य यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः॥
तुम में अनन्त बल और पराक्रम है अतः इस गुफाके द्वार पर लगे इस
महान पर्वतराज को हटा दो और इसी गुफाके भीतर घुस जाओ जहाँ
सूर्य के समान तेजस्वी तुम्हारे जैसे और भी इन्द्र रहते हैं।
स तद् विवृत्य विवरं महागिरेस्तुल्यद्युतींश्चतुरो
अन्यान् ददर्श।
स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः
कच्चिनाहं भविता वै यथेमे॥
उन्होंने उस महान् पर्वतकी कन्दराका द्वार खोलकर
उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रों को भी देखा
उन्हें देखकर वे बहुत दुखी हुये और सोचने लगे कहीं ऐसा तो नहीं
होगा कि मैं भी इन्हींके समान दुर्दशामें पड जाऊँ।
तब पर्वत पर शयन करनेवाले महादेवजी ने आँखें तरेरकर
कुपित हो वज्रधारी इन्द्र से कहा शतक्रतो तुमने मूर्खतावश पहले
मेरा अपमान किया है इसलिये अब इस कन्दरामें प्रवेश करो।
उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः प्रावेपतार्तो भृशमेवाभिषङ्गात्।
स्नस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्नमश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि॥
पर्वतशिखरपर भगवान्रुद्र के कहने पर इन्द्र पराभव की
आशङ्कासे अत्यन्त दुखी हो गये उनके सारे अङ्ग शिथिल पड गये व हवासे हिलनेवाले
पीपल के पत्ते की तरह वे काँपने लगे।
वृषभवाहन भगवान शंकरके द्वारा इस प्रकार सहसा गुहाप्रवेश
की आज्ञा मिलनेपर काँपते हुये इन्द्र ने हाथ जोडकर उन अनेक
रूपधारी उग्रस्वरूप रुद्रदेवसे कहा जगद्योने आप ही समस्त जगतकी
उत्पत्ति करनेवाले आदिपुरुष हैं।
तब भयंकर तेजवाले रुद्र ने हँसकर कहा तुम्हारे जैसे
शील स्वभाववाले लोगों को यहाँ प्रसादकी प्राप्ति नहीं होती।
ये लोग भी पहले तुम्हारे जैसे थे अतः तुम भी इस कन्दरा में घुसकर
शयन करो।
वहाँ भविष्य में निश्चय ही तुमलोग ऐसे ही होनेवाले हो
तुम सबको मनुष्य योनिमें प्रवेश करना पडेगा। उस जन्म में
तुम अनेक दुःसह कर्म करके बहुतों को मौत के घाट उतारकर
पुनः अपने शुभ कर्मों द्वारा पहले से ही उपार्जित पुण्यात्माओं के निवासयोग्य
इन्द्र लोक में आ जाओगे ।
मैंने जो कुछ कहा है वह सब कुछ तुम्है करना होगा।
इसके सिवा और भी नाना प्रकार के प्रयोजनों से युक्त कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होंगे।
पूर्व के इन्द्रों ने कहा भगवान हम आपकी आज्ञा के अनुसार देवलोक
से मनुष्य लोक में जायँगे जहाँ दुर्लभ मोक्ष का साधन भी सुलभ होता है।
परंतु वहाँ हमें धर्म, वायु , इन्द्र और दोनों अश्विनीकुमारों ये ही देवता माताके गर्भ
स्थापित करें। तदनन्तर हम दिव्यास्त्रों द्वारा मानव वीरों से युद्ध करके पुनः इन्द्रलोक
चले आयेंगे।
विश्वभुग् भूतधामा च शिबिरिन्द्रः प्रतापवान्।
शान्तिश्चतुर्थस्तेषां वै तेजस्वी पञ्चमः स्मृतः॥
राजन पूर्ववर्ती इन्द्रों का यह वचन सुन वज्रधारी इन्द्र ने पुनः महादेव जी
से इस पुरुष को देवताओं कार्यके लिये समर्पित करुँगा जो इन चारों के साथ पाँचवाँ
होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करुँगा। विश्वभुक,भूतधामा,प्रतापी इन्द्र शिबि,
शान्ति और तेजस्वी ये ही उन पाँचों के नाम हैं।
उग्र धनुष धारण करनेवाले भगवान रुद्रने उन सबको उनकी
अभीष्ट कामना पूर्ण होने का वरदान दिया जिसे वे अपने साधुस्वभावके
कारण भगवान के सामने प्रकट कर चुके थे।
साथ ही उस लोक कमनीया युवती स्त्री को जो स्वर्गलोक की लक्ष्मी थी मनुष्यलोकमें
उनकी पत्नी निश्चित की ।
उन्होंने भी उन्हीं सब बातों के लिये आज्ञा दी।
तत्पश्चात वे लोग पृथ्वीपर प्रकट हुये। उस
समय भगवान नारायण ने अपने मस्तक से दो केश
निकाले जिनमें एक श्वेत और दूसरा श्याम।
तौ चापि केशौ निविशेतां यदूनां कुले स्त्रियौ देवकींं रोहिणीं च।
तयोरेको बलदेवो बभूव यो असौ श्वेतस्तस्य देवस्य केशः।
कृष्णो द्वितीयः केशवः सम्बभूव केशो यो असौ वर्णतः कृष्ण उक्तः॥
वे दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों देवकी तथा रोहिणी के भीतर
प्रविष्ट हुये। उनमे से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुये जो भगवान नारायण का श्वेत केश
थे दूसरा केश जिसे श्यामवर्णका बताया गया है। वही देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण
के रूप में प्रकट हुआ।
ये ते पूर्वे शक्ररूपा निबद्धास्तस्यां दर्यो पर्वतस्योत्तरस्य।
इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची॥
उत्तरवर्ती हिमालय की कन्दरामें पहले जो इन्द्रस्वरूप पुरुष बंदी बनाकर रक्खे गये थे।
वे ही चारों पराक्रमी पाण्डव वहाँ विद्यमान हैं और साक्षात इन्द्र का अंश भूत जो पाँचवाँ
पुरुष प्रकट होनेवाला था वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है।
एवमेते पाण्डवाः सम्बभूवुर्ये ते राजन् पूर्वमिन्द्रा बभूवुः।
लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा॥
कथंहि स्त्री कर्मणा ते महीतलात् समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात्
यस्या रूपं सोम सूर्यप्रकाशं गन्धश्चास्याः क्रोशमात्रात् प्रवाति॥
राजन इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुये हैं जो पहले इन्द्र रह चुके हैं यह
दिव्यरूपा द्रौपदी वही स्वर्गलोककी लक्ष्मी है जो पहले से ही इनकी पत्नी नियत हो
चुकी है ।
महाराज यदि इस कार्य में देवताओंका सहयोग न होता तो तुम्हारे इस
यज्ञ कर्मद्वारा यज्ञवेदी की भूमि से ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी जिसका
रूप सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोसतक
फैलती रहती है।
नरेन्द्र मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वरके रूपमें यह दिव्य दृष्टि देता हूँ
इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्ती के पुत्रों को उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरों से सम्पन्न देखो।
जनमेजय तदनन्तर परम उदारकर्मवाले पवित्र ब्रह्मर्षि व्यास जी ने अपनी
तपस्याके प्रभाव से राजा द्रुपदको दिव्यदृष्टि प्रदान की जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवों
को पूर्व शरीर से सम्पन्न वास्तविक रूप में देखा।
वे दिव्य शरीर से सुशोभित थे। उनके मस्तकपर सुवर्णमय किरीट और
गले में सुन्दर सोने की माला शोभा पा रही थी। उनकी छवि इन्द्र के ही समान थी।
वे अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान् थे । उन्होंने अपने अङ्गों में सब तरह के
दिव्य अलंकार धारण कर रखे थे।
उनकी युवावस्था थी तथा रूप अत्यन्त मनोहर
था। उन सबकी छाती चौडी थी और वे तालवृक्षके समान लंबे थे। इस रूप में राजा
द्रुपद ने उनका दर्शन किया।
दिव्यैर्वस्त्रैररजोभिः सुगन्धैर्माल्यैश्चात्र्यैः शोभमानानतीव ।
साक्षात् त्र्यक्षान् वा वसूंश्चापि रुद्रनादित्यान् वा सर्वगुणोपपन्नान्॥
वे दिव्य निर्मल वस्त्रों उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओंसे अत्यन्त सुशोभित
हो रहे थे तथा साक्षात त्रिनेत्र महादेव वसुगण रुद्रगण अथवा आदित्यगणों के समान
तेजस्वी एवं सर्वगुणसम्पन्न दिखायी देते थे।
चारों पाण्डवोंको परम सुन्दर पूर्वकालिक इन्द्रों के रूप में तथा
इन्द्र पुत्र अर्जुन को भी इन्द्र के ही स्वरूप में देखकर उस अप्रमेय दिव्य
मायापर दृष्टिपात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो उठे।
उन राजराजेश्वर ने अपनी पुत्री को भी सर्वश्रेष्ठ अत्यन्त रूपवती और
साक्षात चन्द्रमा तथा अग्नि के समान प्रकाशित होनेवाली दिव्य नारी के रूप
में देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रूप तेज और यश की दृष्टि से अवश्य
उन पाण्डवों की पत्नी होने योग्य है। इससे उन्हें महान हर्ष हुआ।
स तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यरूपं जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य ।
नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम्॥
यह महान आश्चर्य देखकर द्रुपदने सत्यवती नन्दन व्यास जी के चरण
पकड लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा महर्षे आपमें ऐसी अद्भुत
शक्ति होना आश्चर्य का विषय नहीं है तब व्यास जी प्रसन्नचित्त हो द्रुपद से बोले
व्यास उवाच
आसीत् तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः।
नाध्यगच्छत् पतिं सा तु कन्या रूपवती सती॥
राजन् द्रौपदी के एक और जन्म का वृत्तांत सुनो।
एक तपोवन में किसी महात्मा मुनिकी कोई कन्या रहती थी।
सती साध्वी एवं रूपवती होनेपर भी उसे योग्य पति की प्राप्ति नहीं हुई।
तब देवाधिदेव महादेव ने मन ही मन अत्यन्त संतुष्ट होकर उससे कहा
भद्रे तुमने पति दीजिये इस वाक्य को पाँच बार दोहराया है इसलिये मैंने
जो पहले कहा है वैसा ही होगा तुम्हारा कल्याण हो। किंतु तुम्हारे दूसरे शरीर में प्रवेश
करनेपर यह सब होगा।
द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता वै देवरूपिणी।
पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता॥
द्रुपद वही मुनिकन्या तुम्हारी इस दिव्यरुपिणी पुत्री रूप में फिर उत्पन्न हुई
है। अतः यह पृषत वंश की सती कन्या कृष्णा पहले से ही पाँच पतियों की पत्नी नियत
की गयी है।
यह स्वर्ग लोक की लक्ष्मी है जो पाण्डवों के लिये तुम्हारे महयज्ञ में प्रकट
हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके इस जन्म में तुम्हारी पुत्री होने का सौभाग्य
प्राप्त किया है।
सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा पञ्चानामेका स्वकृतेनेह कर्मणा।
सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयम्भुवा श्रुत्वा राजन् द्रुपदेष्टं कुरुष्व॥
महाराज द्रुपद वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने ही कर्म से पाँच
पुरुषों की एक ही पत्नी नियत की गयी है।
स्वयं ब्रह्मा जी ने इसे देवस्वरूप
पाण्डवों की पत्नी होने के लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो अच्छा लगे
वह करो।
॥महाभारत आदिपर्व वैवाहिक पर्व अध्याय १९६॥
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जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
दुर्गा शिवा महालक्ष्मीर्महागौरी च चण्डिका।
सर्वज्ञा सर्वलोकेशा सर्वकर्मफलप्रदा॥ १ ॥
सर्वतीर्थमया पुण्या देवयोनिरयोनिजा।
भूमिजा निर्गुणा चैवाधारशक्तिरनीश्वरा॥ २ ॥
निर्गुणा निरहङ्कारा सर्वगर्वविमर्दिनी।
सर्वलोकप्रिया वाणी सर्वविद्याधिदेवता॥ ३ ॥
पार्वती देवमाता च वनीशा विन्ध्यवासिनी।
तेजोवती महामाता कोटिसूर्यसमप्रभा॥ ४ ॥
देवता वह्निरूपा च सदौजा वर्णरूपिणी।
गुणाश्रया गुणमयी गुणत्रयविवर्जिता॥ ५ ॥
कर्मज्ञानप्रदा कान्ता सर्वसंहारकारिणी।
धर्मज्ञाना धर्मनिष्ठा सर्वकर्मविवर्जिता॥ ६ ॥