#वेदकोषामृत #संस्कृत #महाभारत
#VedakoshAmrita #Sanskrit #Mahabharata

Dialogue between Maharishi Vedvyasa and Drupada revealing the secret of previous lives of Pandavas and Devi Draupadi.
व्यास उवाच
पुरा वे नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते।
तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत् तदा॥

पाञ्चाल नरेश पूर्व काल की बात है नैमिषारण्य क्षेत्र में देवता लोग एक
यज्ञ कर रहे थे उस समय वहाँ सूर्यपूत्र यम शामित्र यज्ञ कार्य करते थे।
ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन् नामारयत् कंचिदपि प्रजानाम्।
ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः कालातिपातान्मरणप्रहीणाः॥

राजन् उस यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण यमराज ने मानवप्रजाकी मृत्यु का कार्य
स्थगित कर दिया था
इस प्रकार मृत्यु का नियत समय बीत जाने से सारी प्रजा अमर
होकर दिनों दिन बढने लगी। धीरे धीरे उसकी संख्या बहुत बढ गयी।
सोमश्च शक्रो वरुणः कुबेरः साध्या रुद्रा वसवो
अथाश्विनौ च।
प्रजापतिर्भुवनस्य प्रणेता समाजग्मुस्तत्र देवास्तथान्ये॥
ततो अब्रुवन लोकगुरुं समेता भयात् तीव्रान्मानुषाणां च वृद्ध्या।
तस्माद् भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम्॥
चन्द्रमा इन्द्र वरुण कुबेर साध्यगण रुद्रगण वसुगण दोनों अश्विनीकुमार
तथा अन्य देवता मिलकर जहाँ सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्माजी निवास करते थे
वहाँ गये वहाँ जाकर वे सब देवता लोकगुरु ब्रह्माजी से बोले
भगवन् मनुष्यो की संख्या बहुत बढ रही है इससे हमें बड़ा भय लगता है
उस भयसे हम सभी व्याकुल हो उठे हैं और सुख पाने की इच्छासे आपकी
शरण में आये हैं।
पितामह उवाच
किं वो भयं मानुषेभ्यो यूयं सर्वे यदामराः।
मा वो मर्त्यसकाशाद् वै भयं भवितुमर्हति॥

तुम्हें मनुष्यों से क्यों भय लगता है जब
कि तुम सभी लोग अमर हो तब तुम्हे मरणधर्मा
मनुष्योंसे कभी भयभीत नहीं होना चाहिये।
देवा ऊचुः

मर्त्या अमर्त्याः संवृत्ता न विशेषो अस्ति कश्चन।
अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः॥

जो मरणशील थे वे अमर हो गये अब हममे और उनमे कोई भेद नहीं रह गया।
यह अन्तर मिट जानेसे ही हमें अधिक घबराहट हो रही है। हमारी विशेषता बनी रहे
इस कारण हम यहाँ आये हैं।
श्री भगवानुवाच

वैवस्वतो व्यापृतः सत्रहेतोस्तेन त्विमे न म्रियन्ते मनुष्याः।
तस्मिन्नेकाग्रे कृतसर्वकार्ये तत एषां भवितैवान्तकालः॥
वैवस्वतस्यैव तनुर्विभक्ता वीर्येण युष्माकमुत प्रयुक्ता।
सैषामन्तो भविता ह्यन्तकाले न तत्र वीर्ये भविता नरेषु॥
सूर्यपुत्र यमराज यज्ञ के कार्यमें लगे हैं इसीलिये ये मनुष्य मर नहीं रहे हैं
जब वे यज्ञ का सारा काम पूरा करके इधर ध्यान देंगे तब इन मनुष्योंका अन्तकाल
उपस्थित होगा। तुमलोगो के बल के प्रभाव से जब सूर्यनन्दन यमराज शरीर यज्ञ
कार्य से अलग होकर मनुष्यों की मृत्यु का कारण बनेगा।
उस समय मनुष्यों में इतनी
शक्ति नहीं होगी कि वे मृत्यु से अपने को बचा सकें।

व्यास उवाच

ततस्तु ते पूर्वजदेववाक्यं श्रुत्वा जग्मुर्यत्र देवा यजन्ते।
समासीनास्ते समेता महाबला भागीरथ्यां ददृशुः पुण्डरीकम्॥
राजन तब वे अपने पूर्वज देवता ब्रह्माजी का वचन सुनकर फिर
वहीं चले गये जहाँ सब देवता यज्ञ कर रहे थे । एक दिन वे सभी महाबली
देवगण गङ्गाजी में स्नान करने के लिये गये और वहाँ तटपर बैठे उसी समय उन्हेंं
भागीरथीके जलमे बहता हुआ एक कमल दिखायी दिया।
दृष्ट्वा च तद् विस्मितास्ते बभूवस्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम।
सो अपश्यद् योषामथ पावकप्रभां यत्र देवी गङ्गा सततं प्रभुता॥

उसे देखकर वे सब देवता चकित हो गये। उनमें सबसे प्रधान और शूरवीर इन्द्र
उस कमलका पता लगाने के लिये गङ्गाजी के स्थान की ओर गये ।
गङ्गोत्तरी के पास जहाँ गङ्गादेवी का जल सदा अविच्छिन्नरूपसे झरता रहता है
वहाँ पहुँचकर इन्द्रने एक अग्निके समान तेजस्विनी युवती देखी।

स तत्र योषा रुदती जलार्थिनी गङ्गां देवीं व्यवगाह्य व्यतिष्ठत्।
तस्याश्रुविन्दुः पतितो जले यस्तत् पद्ममासीदथ तत्र काञचनम्॥
वह युवती वहाँ जलके लिये आयी थी और भगवती गङ्गा की धारा में प्रवेश करके
रोती हुई खडी थी। उसके आँसुओका एक एक बिन्दु जो जल में गिरता था वहाँ
सुवर्णमय कमल बन जाता था।
तदद्भुतं प्रेक्ष्य वज्री तदानीमपृच्छत् तां योषितमन्तिकाद् वै।
का त्वं भद्रे रोदिषि कस्य हेतोर्वाक्यं तथ्यं कामये अह ब्रवीहि॥

यह अद्भुत दृश्य देखकर वज्रधारी इन्द्रने उस समय उस युवती के
निकट जाकर पूछा मद्रे तुम कौन हो और किसलिये रोती हो बताओ मैं तुमसे सच्ची
बात जानना चाहता हूँ।
स्त्रयुवाच

त्वं वेत्स्यसे मामिह यास्मि शक्र
यदर्थे चाहं रोदिमि मन्दभाग्या।
आगच्छ राजन् पुरतो गमिष्ये
द्रष्टासि तद् रोदिमि यत्कृते अहम्॥
देवराज इन्द्र मैं एक भाग्यहीन अबला हूँ कौन हूँ और किसलिये रो रही हूँ
यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ मैं आगे आगे चल रही हूँ
वहाँ चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किसलिये रोती हूँ।
व्यास उवाच

तां गच्छन्तीमन्यगच्छत् तदानीं
सो अपश्यदारात् तरुणं दर्शनीयम्।
सिद्धासनस्थं युवतीसहायं क्रीडन्तमैक्षद् गिरिराजमूर्ध्नि॥

राजन् यों कहकर आगे आगे जाती हुई उस स्त्रीके पीछे पीछे
उस समय इन्द्र भी गये।
गिरिराज हिमालयके शिखरपर पहुँचकर उन्होंने
देखा पास ही एक परम सुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासनसे बैठे हैं उनके साथ एक
युवती भी है। इन्द्र ने उस युवतीके साथ उन्हें क्रीडा विनोद करते देखा।
तमब्रवीद् देवराजो ममेदं त्वं विद्धि विद्वन् भुवनं वशे स्थितम्।
ईशो अहमस्मीति समन्युरब्रवीद् दृष्ट्वा तमक्षैः सुभृशं प्रमत्तम्॥

वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से क्रीडामें अत्यन्त तन्मय हो रहे थे
अतः इधर-उधर उनका ध्यान नहीं जाता था।
उन्हें इस प्रकार असावधान देख
देवराज इन्द्र ने कुपित होकर कहा ।
महानुभाव यह सारा जगत् मेरे अधिकार में है मेरी आज्ञा के अधीन है मैं इस जगतका
ईश्वर हूँ।
क्रुद्धं च शक्रं प्रसमीक्ष्य देवो जहास शक्रं च शनैरुदैक्षत।
संस्तम्भितो अभूदथ देवराजस्तेनेक्षितः स्थाणुरिवावतस्थे॥
यदा तु पर्याप्तमिहास्य क्रीडया तदा देवीं रुदतीं तामुवाच।
आनीयतामेष यतो अहमारास्नैनं दर्पः पुनरप्याविशेत॥
इन्द्र को क्रोध में भरा देख वे देवपुरुष हँस पडे। उन्होंने धीरेसे आँख
उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पडते ही देवराज इन्द्रका शरीर
स्तम्भित हो गया । वे ठूँठे कालकी भाँति निश्चेष्ट हो गये।
जब उनकी वह क्रीडा समाप्त हुई तब वे उस रोती हुई देवीसे बोले
इस इन्द्र को जहाँ मैं हूँ यहीं मेरे समीप ले आओ जिससे फिर इसके भीतर
अभिमानका प्रवेश न हो।
ततः शक्रः स्पृष्टमात्रस्तया तु स्नस्तैरङ्गैः पतितो
अभूद्धरण्याम्।
तमब्रवीद् भगवानुग्रतेजा मैवं पुनः शक्र कृथाः कथंचित्॥

तदनन्तर उस स्त्रीने ज्यों ही इन्द्रका स्पर्श किया उसके सारे
अङ्ग शिथिल हो गये और वे धरतीपर गिर पडे ।
तब उग्र तेजस्वी
भगवान रुद्र ने उनसे कहा इन्द्र फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमण्ड नहीं करना।

निवर्तयैनं च महाद्रिराज बलं च वीर्ये च तवाप्रमेयम्।
छिद्रस्य चैवाविश मध्यमस्य यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः॥
तुम में अनन्त बल और पराक्रम है अतः इस गुफाके द्वार पर लगे इस
महान पर्वतराज को हटा दो और इसी गुफाके भीतर घुस जाओ जहाँ
सूर्य के समान तेजस्वी तुम्हारे जैसे और भी इन्द्र रहते हैं।
स तद् विवृत्य विवरं महागिरेस्तुल्यद्युतींश्चतुरो
अन्यान् ददर्श।
स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः
कच्चिनाहं भविता वै यथेमे॥

उन्होंने उस महान् पर्वतकी कन्दराका द्वार खोलकर
उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रों को भी देखा
उन्हें देखकर वे बहुत दुखी हुये और सोचने लगे कहीं ऐसा तो नहीं
होगा कि मैं भी इन्हींके समान दुर्दशामें पड जाऊँ।

ततो देवो गिरिशो वज्रपाणिं विवृत्य नेत्रे कुपितो अभ्युवाच।
दरीमेतां प्रविश त्वं शतक्रतो यन्मां बाल्यादवमंस्थाः पुरस्तात्॥
तब पर्वत पर शयन करनेवाले महादेवजी ने आँखें तरेरकर
कुपित हो वज्रधारी इन्द्र से कहा शतक्रतो तुमने मूर्खतावश पहले
मेरा अपमान किया है इसलिये अब इस कन्दरामें प्रवेश करो।
उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः प्रावेपतार्तो भृशमेवाभिषङ्गात्।
स्नस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्नमश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि॥
पर्वतशिखरपर भगवान्रुद्र के कहने पर इन्द्र पराभव की
आशङ्कासे अत्यन्त दुखी हो गये उनके सारे अङ्ग शिथिल पड गये व हवासे हिलनेवाले
पीपल के पत्ते की तरह वे काँपने लगे।
स प्राञ्जलिर्वै वृषवाहनेन प्रवेपमानः सहसैवमुक्तः।
उवाच देवं बहुरुपमुग्रस्नष्टाशेषस्य भुवनस्य त्वं भवाद्यः॥
वृषभवाहन भगवान शंकरके द्वारा इस प्रकार सहसा गुहाप्रवेश
की आज्ञा मिलनेपर काँपते हुये इन्द्र ने हाथ जोडकर उन अनेक
रूपधारी उग्रस्वरूप रुद्रदेवसे कहा जगद्योने आप ही समस्त जगतकी
उत्पत्ति करनेवाले आदिपुरुष हैं।
तमब्रवीदुग्रवर्चाः प्रहस्य नैवंशीलाः शेषमिहाप्नुवन्ति।
एते अप्येवं भवितारः पुरस्तात् तस्मादेतां दरीमाविश्य शेष्व॥
तब भयंकर तेजवाले रुद्र ने हँसकर कहा तुम्हारे जैसे
शील स्वभाववाले लोगों को यहाँ प्रसादकी प्राप्ति नहीं होती।
ये लोग भी पहले तुम्हारे जैसे थे अतः तुम भी इस कन्दरा में घुसकर
शयन करो।
तत्र ह्येवं भवितारो न संशयो योनिं सर्वे मानुषीमाविशध्वम्।
तत्र यूयं कर्म कृत्वाविषह्यं बहूनन्यान् निधनं प्रापयित्वा॥

आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकं स्वकर्मणा पूर्वजितं महार्हम्।
सर्वे मया भाषितमेतदेवं कर्तव्यमन्यद् विविधार्थयुक्तम्॥
वहाँ भविष्य में निश्चय ही तुमलोग ऐसे ही होनेवाले हो
तुम सबको मनुष्य योनिमें प्रवेश करना पडेगा। उस जन्म में
तुम अनेक दुःसह कर्म करके बहुतों को मौत के घाट उतारकर
पुनः अपने शुभ कर्मों द्वारा पहले से ही उपार्जित पुण्यात्माओं के निवासयोग्य
इन्द्र लोक में आ जाओगे ।
मैंने जो कुछ कहा है वह सब कुछ तुम्है करना होगा।
इसके सिवा और भी नाना प्रकार के प्रयोजनों से युक्त कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होंगे।
पूर्वेन्द्रा ऊचुः

गमिष्यामो मानुषं देवलोकाद् दुराधरो विहितो यत्र मोक्षः।
देवास्तवस्मानादधीरञ्जनन्यां धर्मो वायुर्मघवानश्विनौ च ।
अस्त्रैर्दिव्यैर्मानुषान् योधयित्वा आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकम्॥
पूर्व के इन्द्रों ने कहा भगवान हम आपकी आज्ञा के अनुसार देवलोक
से मनुष्य लोक में जायँगे जहाँ दुर्लभ मोक्ष का साधन भी सुलभ होता है।
परंतु वहाँ हमें धर्म, वायु , इन्द्र और दोनों अश्विनीकुमारों ये ही देवता माताके गर्भ
स्थापित करें। तदनन्तर हम दिव्यास्त्रों द्वारा मानव वीरों से युद्ध करके पुनः इन्द्रलोक
चले आयेंगे।
व्यास उवाच

एतत् श्रुत्वा वज्रपाणिर्वचस्तु देवश्रेष्ठं पुनरेवेदमाह।
वीर्येणाहं पुरुषं कार्यहेतोर्दद्यामेषां पञ्चमं मत्प्रसूतम्॥

विश्वभुग् भूतधामा च शिबिरिन्द्रः प्रतापवान्।
शान्तिश्चतुर्थस्तेषां वै तेजस्वी पञ्चमः स्मृतः॥
राजन पूर्ववर्ती इन्द्रों का यह वचन सुन वज्रधारी इन्द्र ने पुनः महादेव जी
से इस पुरुष को देवताओं कार्यके लिये समर्पित करुँगा जो इन चारों के साथ पाँचवाँ
होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करुँगा। विश्वभुक,भूतधामा,प्रतापी इन्द्र शिबि,
शान्ति और तेजस्वी ये ही उन पाँचों के नाम हैं।
तेषां कामं भगवानुग्रधन्वा प्रादादिष्टं संनिसर्गाद् यथोक्तम्।
तां चाप्येषां योषितं लोककान्तां श्रियं भार्यो व्यदधान्मानुषेधु॥

उग्र धनुष धारण करनेवाले भगवान रुद्रने उन सबको उनकी
अभीष्ट कामना पूर्ण होने का वरदान दिया जिसे वे अपने साधुस्वभावके
कारण भगवान के सामने प्रकट कर चुके थे।
साथ ही उस लोक कमनीया युवती स्त्री को जो स्वर्गलोक की लक्ष्मी थी मनुष्यलोकमें
उनकी पत्नी निश्चित की ।

तैरेव सार्धे तु ततः स देवो जगाम नारायणमप्रमेयम्।
अनन्तमव्यक्तमजं पुराणं सनातनं विश्वमनन्तरूपम्॥
तदनन्तर उन्हीं के साथ महादेव जी अनन्त अप्रमेय अव्यक्त अजन्मा
पुराणपुरुष सनातन विश्वरुप एवं अनन्तमूर्ति भगवान् नारायण के पास गये।
सचापि तद् व्यदधात् सर्वमेव ततः सर्वे सम्बभूवुर्धरण्याम्।
स चापि केशौ हरिरुद्वबर्ह शुक्लमेकमपरं चापि कृष्णम्॥

उन्होंने भी उन्हीं सब बातों के लिये आज्ञा दी।
तत्पश्चात वे लोग पृथ्वीपर प्रकट हुये। उस
समय भगवान नारायण ने अपने मस्तक से दो केश
निकाले जिनमें एक श्वेत और दूसरा श्याम।
तौ चापि केशौ निविशेतां यदूनां कुले स्त्रियौ देवकींं रोहिणीं च।
तयोरेको बलदेवो बभूव यो असौ श्वेतस्तस्य देवस्य केशः।
कृष्णो द्वितीयः केशवः सम्बभूव केशो यो असौ वर्णतः कृष्ण उक्तः॥
वे दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों देवकी तथा रोहिणी के भीतर
प्रविष्ट हुये। उनमे से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुये जो भगवान नारायण का श्वेत केश
थे दूसरा केश जिसे श्यामवर्णका बताया गया है। वही देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण
के रूप में प्रकट हुआ।
ये ते पूर्वे शक्ररूपा निबद्धास्तस्यां दर्यो पर्वतस्योत्तरस्य।
इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची॥
उत्तरवर्ती हिमालय की कन्दरामें पहले जो इन्द्रस्वरूप पुरुष बंदी बनाकर रक्खे गये थे।
वे ही चारों पराक्रमी पाण्डव वहाँ विद्यमान हैं और साक्षात इन्द्र का अंश भूत जो पाँचवाँ
पुरुष प्रकट होनेवाला था वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है।
एवमेते पाण्डवाः सम्बभूवुर्ये ते राजन् पूर्वमिन्द्रा बभूवुः।
लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा॥
कथंहि स्त्री कर्मणा ते महीतलात् समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात्
यस्या रूपं सोम सूर्यप्रकाशं गन्धश्चास्याः क्रोशमात्रात् प्रवाति॥
राजन इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुये हैं जो पहले इन्द्र रह चुके हैं यह
दिव्यरूपा द्रौपदी वही स्वर्गलोककी लक्ष्मी है जो पहले से ही इनकी पत्नी नियत हो
चुकी है ।
महाराज यदि इस कार्य में देवताओंका सहयोग न होता तो तुम्हारे इस
यज्ञ कर्मद्वारा यज्ञवेदी की भूमि से ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी जिसका
रूप सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोसतक
फैलती रहती है।
इदं चान्यत् प्रीतिपूर्वे नरेन्द्र ददानि ते वरमत्यद्भुतं च।
दिव्यं चक्षुः पश्य कुन्तीसुतांस्त्वं पुण्यैदिव्यैः पूर्वदेहैरुपेतान्॥
नरेन्द्र मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वरके रूपमें यह दिव्य दृष्टि देता हूँ
इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्ती के पुत्रों को उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरों से सम्पन्न देखो।
ततो व्यासः परमोदारकर्मा शुचिर्विप्रस्तपसा तस्य राज्ञः।
चक्षुर्दिव्यं प्रददौ तांश्च सवान् राजापश्यत् पूर्वदेहैर्यथावत्॥
जनमेजय तदनन्तर परम उदारकर्मवाले पवित्र ब्रह्मर्षि व्यास जी ने अपनी
तपस्याके प्रभाव से राजा द्रुपदको दिव्यदृष्टि प्रदान की जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवों
को पूर्व शरीर से सम्पन्न वास्तविक रूप में देखा।
ततो दिव्यान् हेमकिरीचमालिकाः शक्रप्रख्यान् पावकदित्यवर्णात्।
बद्धापीडांश्चारुरुपांश्च यूनो व्यूढोरस्कांस्तालमात्रान् ददर्श॥
वे दिव्य शरीर से सुशोभित थे। उनके मस्तकपर सुवर्णमय किरीट और
गले में सुन्दर सोने की माला शोभा पा रही थी। उनकी छवि इन्द्र के ही समान थी।
वे अग्नि और सूर्य के समान कान्तिमान् थे । उन्होंने अपने अङ्गों में सब तरह के
दिव्य अलंकार धारण कर रखे थे।
उनकी युवावस्था थी तथा रूप अत्यन्त मनोहर
था। उन सबकी छाती चौडी थी और वे तालवृक्षके समान लंबे थे। इस रूप में राजा
द्रुपद ने उनका दर्शन किया।
दिव्यैर्वस्त्रैररजोभिः सुगन्धैर्माल्यैश्चात्र्यैः शोभमानानतीव ।
साक्षात् त्र्यक्षान् वा वसूंश्चापि रुद्रनादित्यान् वा सर्वगुणोपपन्नान्॥
वे दिव्य निर्मल वस्त्रों उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओंसे अत्यन्त सुशोभित
हो रहे थे तथा साक्षात त्रिनेत्र महादेव वसुगण रुद्रगण अथवा आदित्यगणों के समान
तेजस्वी एवं सर्वगुणसम्पन्न दिखायी देते थे।
तान् पूर्वेन्द्रानभिवीक्ष्याभिरूपान् शक्रात्मजं चेन्द्ररूपं निशम्य।
प्रीतो राजा द्रुपदो विस्मितश्च दिव्यां मायां तामवेक्ष्याप्रमेयाम्॥
चारों पाण्डवोंको परम सुन्दर पूर्वकालिक इन्द्रों के रूप में तथा
इन्द्र पुत्र अर्जुन को भी इन्द्र के ही स्वरूप में देखकर उस अप्रमेय दिव्य
मायापर दृष्टिपात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो उठे।
तां चैवाग्र्यां स्त्रियमतिरूपयुक्तां दिव्यां साक्षात् सोमवह्निप्रकाशाम्।
योग्यां तेषां रूपतेजोयशोभिः पत्नी मत्वा हृष्टवान् पार्थिवेन्द्रः॥
उन राजराजेश्वर ने अपनी पुत्री को भी सर्वश्रेष्ठ अत्यन्त रूपवती और
साक्षात चन्द्रमा तथा अग्नि के समान प्रकाशित होनेवाली दिव्य नारी के रूप
में देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रूप तेज और यश की दृष्टि से अवश्य
उन पाण्डवों की पत्नी होने योग्य है। इससे उन्हें महान हर्ष हुआ।
स तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यरूपं जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य ।
नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम्॥
यह महान आश्चर्य देखकर द्रुपदने सत्यवती नन्दन व्यास जी के चरण
पकड लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा महर्षे आपमें ऐसी अद्भुत
शक्ति होना आश्चर्य का विषय नहीं है तब व्यास जी प्रसन्नचित्त हो द्रुपद से बोले
व्यास उवाच

आसीत् तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः।
नाध्यगच्छत् पतिं सा तु कन्या रूपवती सती॥

राजन् द्रौपदी के एक और जन्म का वृत्तांत सुनो।
एक तपोवन में किसी महात्मा मुनिकी कोई कन्या रहती थी।
सती साध्वी एवं रूपवती होनेपर भी उसे योग्य पति की प्राप्ति नहीं हुई।
तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम्।
तामुवाचेश्वरः प्रीतो वृणु काममिति स्वयम्॥

उसने कठोर तपस्याद्वारा भगवान शंकर को संतुष्ट किया।
महादेव जी प्रसन्न होकर साक्षात प्रकट होकर उस मुनि कन्या
से बोले तुम मनोवाञ्छित वर माँगो।
सैवमुक्ताब्रवीत् कन्या देवं वरदमीश्वरम्।
पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः ॥

उनके यों कहने पर उस मुनि कन्या ने वरदायक महेश्वर से बार-बार कहा
मैं सर्वगुण सम्पन्न पति चाहती हूँ।
ददौ तस्यै स देवेशस्तं वरं प्रीतिमानसः।
पञ्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति शंकरः॥

देवेश्वर भगवान शंकर प्रसन्नचित्त होकर उसे वर दिया
भद्रे तुम्हारे पाँच पति होंगे।
सा प्रसादयती देवमिदं भूयो अभ्यभाषत।
एकं पतिं गुणोपेतं त्वत्तो अर्हामीति शंकर॥

यह सुनकर उसने महादेव जी को प्रसन्न करते हुये पुनः यह बात
कही शंकर जी मैं तो आपसे एक ही गुणवान पति प्राप्त करना
चाहती हूँ।
तां देवदेवः प्रीतात्मा पुनः प्राह शुभं वचः।
पञ्चकृत्वस्त्वयोक्तो अहं पतिं देहीति वै पुनः॥
तत् तथा भविता भद्रे वचस्तद् भद्रमस्तु ते।
देहमन्युं गतायास्ते सर्वमेतद् भविष्यति॥
तब देवाधिदेव महादेव ने मन ही मन अत्यन्त संतुष्ट होकर उससे कहा
भद्रे तुमने पति दीजिये इस वाक्य को पाँच बार दोहराया है इसलिये मैंने
जो पहले कहा है वैसा ही होगा तुम्हारा कल्याण हो। किंतु तुम्हारे दूसरे शरीर में प्रवेश
करनेपर यह सब होगा।
द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता वै देवरूपिणी।
पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता॥

द्रुपद वही मुनिकन्या तुम्हारी इस दिव्यरुपिणी पुत्री रूप में फिर उत्पन्न हुई
है। अतः यह पृषत वंश की सती कन्या कृष्णा पहले से ही पाँच पतियों की पत्नी नियत
की गयी है।
स्वर्गश्रीः पाण्डवार्थे तु समुत्पन्ना महामस्त्रे ।
सेह तप्त्वा तपो घोरं दुहितृत्वं तवागता॥

यह स्वर्ग लोक की लक्ष्मी है जो पाण्डवों के लिये तुम्हारे महयज्ञ में प्रकट
हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके इस जन्म में तुम्हारी पुत्री होने का सौभाग्य
प्राप्त किया है।
सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा पञ्चानामेका स्वकृतेनेह कर्मणा।
सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयम्भुवा श्रुत्वा राजन् द्रुपदेष्टं कुरुष्व॥

महाराज द्रुपद वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने ही कर्म से पाँच
पुरुषों की एक ही पत्नी नियत की गयी है।
स्वयं ब्रह्मा जी ने इसे देवस्वरूप
पाण्डवों की पत्नी होने के लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो अच्छा लगे
वह करो।

॥महाभारत आदिपर्व वैवाहिक पर्व अध्याय १९६॥

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Jan 9
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महादेव भवाकार नीलकण्ठ त्रिलोचन।
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पिनाकमृग दृग्देव पाहि पञ्चनदीपते॥ ८॥
ममाष्टकमिदं स्तोत्रं प्रतियाम विशेषतः।
पठते वाञ्छितं सर्वं प्रयच्छामि द्विजोत्तम॥ ९॥
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Jan 8
।।श्री सूर्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र।।

सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥

कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः।
कला काष्ठा मुहुर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥

लोकाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः ।
कालाध्यक्षः
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ ९॥

भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ १०॥
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Dec 21, 2022
॥वैशम्पायन उवाच॥
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम्॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्टा राजेन्द्र ते अन्योन्यस्य प्रियंवदे॥
जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
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Dec 21, 2022
।।श्रीगणाधीशस्तोत्रं।।

नमस्ते गणनाथाय गणानां पतये नमः।
भक्तिप्रियाय देवेश भक्तेभ्यः सुखदायक॥ १॥
स्वानन्दवासिने तुभ्यं सिद्धिबुद्धिवराय च।
नाभिशेषाय देवाय ढुण्ढिराजाय ते नमः॥ २॥
वरदाभयहस्ताय नमः परशुधारिणे।
नमस्ते सृणिहस्ताय नाभिशेषाय ते नमः॥ ३॥
अनामयाय सर्वाय सर्वपूज्याय ते नमः।
सगुणाय नमस्तुभ्यं ब्रह्मणे निर्गुणाय च॥ ४॥
ब्रह्मभ्यो ब्रह्मदात्रे च गजानन नमोऽस्तु ते।
आदिपूज्याय ज्येष्ठाय ज्येष्ठराजाय ते नमः॥ ५॥
मात्रे पित्रे च सर्वेषां हेरम्बाय नमो नमः।
अनादये च विघ्नेश विघ्नकर्त्रे नमो नमः॥ ६॥
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Dec 20, 2022
।श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ।

दुर्गा शिवा महालक्ष्मीर्महागौरी च चण्डिका।
सर्वज्ञा सर्वलोकेशा सर्वकर्मफलप्रदा॥ १ ॥
सर्वतीर्थमया पुण्या देवयोनिरयोनिजा।
भूमिजा निर्गुणा चैवाधारशक्तिरनीश्वरा॥ २ ॥
निर्गुणा निरहङ्कारा सर्वगर्वविमर्दिनी।
सर्वलोकप्रिया वाणी सर्वविद्याधिदेवता॥ ३ ॥
पार्वती देवमाता च वनीशा विन्ध्यवासिनी।
तेजोवती महामाता कोटिसूर्यसमप्रभा॥ ४ ॥
देवता वह्निरूपा च सदौजा वर्णरूपिणी।
गुणाश्रया गुणमयी गुणत्रयविवर्जिता॥ ५ ॥
कर्मज्ञानप्रदा कान्ता सर्वसंहारकारिणी।
धर्मज्ञाना धर्मनिष्ठा सर्वकर्मविवर्जिता॥ ६ ॥
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Dec 19, 2022
।।श्रीहरिशङ्करस्तोत्र।।

मत्स्यं नमस्ये देवेशं कूर्मं देवेशमेव च।
हयशीर्षं नमस्येऽहं भवं विष्णुं त्रिविक्रमम्॥
नमस्ये माधवेशानौ हृषीकेषकुमारिलौ।
नारायणं नमस्येऽहं नमस्ते गरुडासनम्॥
जयेशं नरसिंहं च रूपधारं कुरुध्वजम्।
कामपालमखण्डं च नमस्ये ब्राह्मणप्रियम्॥
अजितं विश्वकर्माणं पुण्डरीकं द्विजप्रियम्।
हरिं शम्भुं नमस्ये च ब्रह्माणं सप्रजापतिम्॥
नमस्ये शूलबाहुं च देवं चक्रधरं तथा।
शिवं विष्णुं सुवर्णाक्षं गोपतिं पीतवाससम्॥
नमस्ये च गदापाणिं नमस्ये च कुशेशयम्।
अर्धनारीश्वरं देवं नमस्ये पापनाशनम्॥
गोपालं च सवैकुण्ठं नमस्ये चापधारिणम्।
नमस्ये विष्णुरूपं च ज्येष्ठेशं पञ्चमं तथा॥
उपशान्तं नमस्येऽहं मार्कण्डेयं सजम्बुकम्।
नमस्ये पद्मकिरणं नमस्ये वडवामुखम्॥
कार्त्तिकेयं नमस्येऽहं बाह्लिकं शङ्खिनं तथा।
नमस्ये पद्मकिरणं नमस्ये च कुशेशयम्॥
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