शाण्डिल्य उवाच
श्रृणुतं दत्तचित्तौ में सहस्यं व्रजभूमिजम्।
व्रजनं व्याप्तिर्त्यिुक्त्या व्यापनाद् व्रज उच्यते॥
परीक्षित और वज्रनाभ व्रजभूमि का रहस्य
बतलाता हूँ दत्तचित्त हो सुनो। व्रज शब्द का अर्थ है व्याप्ति।
इस व्रद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का
नाम व्रज है
गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते ।
सदानन्दं परं ज्योतिर्मुक्तानां पदमव्ययम्॥

सत्व रज और तम इन तीनों से अतीत जो परब्रह्म है वही व्यापक है।
इसलिये उसे व्रज कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप परम ज्योतिर्मय और
अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं।
तस्मिन् नन्दात्मजः कृष्णः सदानन्दाङ्गविग्रहः।
आत्मारामश्चाप्तकामः प्रेमाक्तैरनुभूयते॥

इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का निवास है।
उनका एक-एक अङ्ग सच्चिदानन्द स्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं।
प्रेमरस में डूबे हुये रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं।
आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ।
आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते गूढवेदिभिः॥

भगवान श्रीकृष्णकी आत्मा हैं राधिका उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य रसके मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें आत्माराम कहते हैं।
कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः।
नित्याः सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम्॥
काम शब्द का अर्थ है कामना,अभिलाषा। व्रज में भगवान के वाञ्छित पदार्थ गौयें ग्वाल-बाल गोपियाँ और उनके साथ लीला विहार आदि वे सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं इसी से श्रीकृष्ण को आप्तकाम कहा गया है।
रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः परमुच्यते।
प्रकृत्या खेलतस्तस्य लीलान्यैरनुभूयते॥

भगवान कृष्ण की यह रहस्य लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ
खेलने लगते हैं उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीलाका अनुभव करते हैं।
सर्गस्थित्यप्यया यत्र रजःसत्वतमोगुणैः।
लीलैवं द्विविधा तस्य वास्तवी व्यावहारिकी॥
प्रकृति के साथ होनेवाली लीला में ही रजोगुण सत्वगुण और तमोगुण द्वारा सृष्टि स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। इसप्रकार निश्चय होता है कि भगवानकी लीला दो प्रकार की है एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी
वास्तवी तत्स्वसंवेद्या जीवानां व्यावहारिकी।
आद्यां विना द्वितीया न द्वितीया नाद्यागा क्वचित्॥
वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है उसे स्वयं भगवान और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं।
जीवों के सामने जो लीला होती है वह व्यावहारिकी लीला है। वास्तवी लीला के विना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती परन्तु व्यावहारिकी लीला का वास्तवी लीला राज्य में
प्रवेश नहीं हो सकता।
युवयोर्गोचरेयं तु तल्लीला व्यावहारिकी।
यत्र भूरादयो लोका भुवि माथुरमणडलम्॥

तुम दोनों जिस लीला को देख रहे हो यह व्यावहारिकी लीला है।
यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अन्तर्गत है।
इसी पृथ्वी पर यह मथुरामण्डल है।
अत्रैव व्रजभूमिः सा यत्र तत्वं सुगोपितम्।
भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि सर्वतः॥
यहीं वह व्रज भूमि है जिसमें भगवान की वह वास्तवी रहस्य लीला गुप्तरूप से होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तों को सब ओर दीखने लगती है।
कदाचिद् द्वापरस्यान्ते रहोलीलाधिकारिणाः।
समवेता यदात्र स्युर्यथेदानीं तदा हरिः॥

कभी द्वापर के अन्तमें जब भगवानकी रहस्यलीला के
अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं जैसा कि इस समय
भी कुछ काल पहले हुये थे उस समय भगवान अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं।
स्वैः सहावतरेत् स्वेषु समावेशार्थमीप्सिताः।
तदा देवादयोऽप्यन्येऽवतरन्ति समन्ततः॥
उनके अवतार का यह प्रयोजन होता है कि रहस्य लीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरों के साथ सम्मिलित होकर लीला रस का आस्वादन कर सकें।
इस प्रकार जब भगवान अवतार ग्रहण करते हैं उस समय भगवान के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि सब ओर अवतार लेते हैं।
सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा हरिरन्तर्हितोऽभवत्।
तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः पूर्वं न संशयः॥
अभी जो अवतार हुआ था उसमें भगवान अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषायें पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो चुके है। इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे इसमें संदेह नहीं है।
नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव देवाद्याश्चेति भेदतः।
देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारकां प्रापिताः पुरा॥
उन तीनों में प्रथम उन लोगों की श्रेणी है जो भगवान के नित्यपार्षद हैं।
जिनका भगवान से कभी वियोग नहीं होता है।
दूसरे वे हैं जो एकमात्र
भगवान को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।
जो भगवान की अन्तरङ्ग लीला में प्रवेश पाना चाहते हैं।
तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं इनमें से जो देवता आदि के अंश हैं
उन्हें भगवान ने व्रजभूमि से हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था।
पुनर्मौशलमार्गेण स्वाधिकारेषु चापिताः।
तल्लिप्सूंश्च सदा कृष्णः प्रेमानन्दैकरुपिणः॥
फिर भगवान ने ब्राह्मण के शाप से उत्पन्न मूसल को निमित्त बनाकर
यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्ग में भेज दिया और पुनः अपने-अपने
अधिकार पर स्थापित कर दिया।
तथा जिन्हें एकमात्र भगवान को प्राप्त करने की ही
इच्छा थी उन्हें प्रेमानन्द स्वरूप बनाकर श्रीकृष्ण ने सदा के लिये अपने अन्तरङ्ग पार्षदों में सम्मिलित कर लिया।
विधाय स्वीयनित्येषु समावेशितवांस्तदा।
नित्याः सर्वेऽप्ययोग्येषु दर्शनाभावतां गताः॥
जो नित्य पार्षद हैं वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूप से होनेवाली लीला में सदा ही रहते हैं
परन्तु जो उनके दर्शनके अधिकारी नहीं हैं ऐसे पुरुषों के लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं।
व्यावहारिकलीलास्थास्तत्र यन्नाधिकारिणः।
पश्यन्त्यत्रागतास्तस्मान्निर्जनत्वं समन्ततः॥
जो लोग व्यावहारिक लीला में स्थित हैं वे नित्यलीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं
इसलिये यहाँ आनेवालों को सब ओर निर्जन वन सूना ही सूना दिखायी देता है क्योंकि वे
वास्तविक लीला मे स्थित भक्तजनों को देख नहीं सकते हैं।
तस्माच्चिन्ता न ते कार्या वज्रनाभ मदाज्ञया।
वासयात्र बहून् ग्रामान् संसिद्धिस्ते भविष्यति॥
इसलिये वज्रनाभ तुम्हे तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
तुम मेरी आज्ञा से यहाँ बहुत से ग्राम बसाओ इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथों की सिद्धि होगी।
कृष्णलीलानुसारेण कृत्वा नामानि सर्वतः।
त्वया वासयता ग्रामान् संसेव्या भूरियं परा॥
भगवान श्रीकृष्ण ने जहाँ जैसी लीला की है उसके अनुसार उस
स्थान का नाम रखकर तुम अनेकों ग्राम बसाओ और इस प्रकार दिव्य व्रजभूमि का नित्य
सेवन करते रहो।
गोवर्द्धने दीर्घपुरे मथुरायां महावने।
नन्दिग्रामे बृहत्सानौ कार्या राज्यस्थितिस्त्वया॥
गोवर्धन दीर्घपुर(डीग)मथुरा महावन(गोकुल)नन्दिग्राम(नन्दगाँव)
और ब्रहत्सानु(बरसाना) आदि में तुम्हे अपने लिये नयी छावनी बनवानी चाहिये।
नद्यद्रिद्रोणिकुण्डादिकुञ्जान् संसेवतस्तव।
राज्ये प्रजाः सुसम्पन्नास्त्वं च प्रीतो भविष्यसि॥
उन-उन स्थानो में रहकर भगवान की लीला के स्थल नदी
पर्वत घाटी सरोवर और कुण्ड तथा कुञ्जवन आदि का सेवन करते रहना चाहिये।
ऐसा करने से तुम्हारे राज्य में प्रजा बहुत ही सम्पन्न रहेगी और तुम भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे।
सच्चिदानन्दभूरेषा त्वया सेव्या प्रयत्नतः।
तव कृष्णस्थलान्यत्र स्फुरन्तु मदनुग्रहात्॥
यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है अतः तुम्हें प्रयत्न पूर्वक इस भूमि का सेवन करना चाहिये।
मैं आशीर्वाद देता हूँ भगवान की लीला के जितने भी लीला स्थल हैं सबकी तुम्हें
ठीक-ठीक पहचान हो जायेगी।
वज्र संसेवनादस्य उद्धवस्त्वां मिलिष्यति।
ततो रहस्यमेतस्मात् प्राप्स्यसि त्वं समातृकः॥
वज्रनाभ इस व्रजभूमि का सेवन करते रहने से तुम्हें उद्धव जी के दर्शन प्राप्त होंगे।
फिर तुम उन्हीं से अपनी माताओं सहित इस भूमि का तथा भगवान की लीलाओं का रहस्य
जान लोगे।
एवमुक्तवा तु शाण्डिल्यो गतः कृष्णमनुस्मरन्।
विष्णुरातोऽथ वज्रश्च परां प्रीतिमवापतुः॥

ऋषि शाण्डिल्य उन दोनों को इसप्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुये अपने
आश्रम पर चले गये उन की बाते सुनकर राजा परीक्षित और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुये।
सूत उवाच

ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्त्रशः।
इन्द्रप्रस्थात् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः॥

तदनन्तर महाराज परीक्षित ने इन्द्रप्रस्थ से हजारों श्रेष्ठियों को
बुलाकर मथुरामे रहने की जगह दी।
माथुरान् ब्राह्मणांस्तत्र वानरांश्च पुरातनान्।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापितवान् स्वराट्॥

इनके अतिरिक्त सम्राट परीक्षित ने मथुरामण्डल के ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरों को
जो भगवान के बडे ही प्रेमी थे बुलवाया और उन्हें आदर के योग्य समझकर मथुरा नगरी में बसाया।
वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात्।
गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात्॥
इस प्रकार महाराज परीक्षित और ऋषि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ जी ने क्रमशः उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगवान कृष्ण अपने प्रेमी गोप गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलायें करते थे।
विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च॥
लीला स्थानों का ठीक -ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहाँ वहाँ की
लीला के अनुसार उस-उस स्थान का नाम करण किया भगवान के लीलाविग्रहों की स्थापना तथा उन-उन स्थानो पर अनेक गाँव बसाये।
स्थान-स्थान पर भगवान के नाम से अनेक कुण्ड और कुँये खुदवाये। कुञ्ज और उद्यान लगवाये शिव आदि देवताओं की स्थापना की
गोविन्दहरिदेवादिस्वरुपारोपणेन च।
कृष्णैकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह॥
गोविन्ददेव हरिदेव आदि नामों से भगवद्विग्रह स्थापित किये।
इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सब ओर एकमात्र श्रीकृष्ण भक्ति का
प्रचार किया और बडे ही आनन्दित हुये।
प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः॥
उनके प्रजाजनो का भी बड़ा ही आनन्द था।
वे सदा भगवान के मधुर नाम तथा लीलाओं के कीर्तन में संलग्न हो
परमानन्द के समुद्र में डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभ के राज्य की
प्रशंसा किया करते थे।

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Jan 21
।।श्रीभैरवाष्टकम्।।

श्रीभैरवो रुद्रमहेश्वरो यो महामहाकाल अधीश्वरोऽथ।
यो जीवनाथोऽत्र विराजमानः श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥१॥
पद्मासनासीनमपूर्वरूपं महेन्द्रचर्मोपरि शोभमानम्।
गदाऽब्ज पाशान्वित चक्रचिह्नं श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥२॥
यो रक्तगोरश्च चतुर्भुजश्च पुरः स्थितोद्भासित पानपात्रः।
भुजङ्गभूयोऽमितविक्रमो यः श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥३॥
रुद्राक्षमाला कलिकाङ्गरूपं त्रिपुण्ड्रयुक्तं शशिभाल शुभ्रम्।
जटाधरं श्वानवरं महान्तं श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥४॥
यो देवदेवोऽस्ति परः पवित्रः भुक्तिञ्च मुक्तिं च ददाति नित्यम्।
योऽनन्तरूपः सुखदो जनानां श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥५॥
यो बिन्दुनाथोऽखिलनादनाथः श्रीभैरवीचक्रपनागनाथः।
महाद्भूतो भूतपतिः परेशः श्रीभैरवं तं शरणं प्रपद्ये॥ ६॥
Read 5 tweets
Jan 20
Bandhuvar there is lot in this संसार that takes place not on physical/material level but on subtle levels of existence.
There exists so much that is beyond normal human senses.
Beyond a point whole superstition thing is a tool to attack & shake the confidence of a practicing Hindu.
"Reform Sanatana Dharma" this idea originates from ignorance,disbelief and leads to destruction only. It is a well thought strategy to bring down whole structure of Sanatana Dharma one by one.
Read 6 tweets
Jan 9
#वेदकोषामृत #संस्कृत #महाभारत
#VedakoshAmrita #Sanskrit #Mahabharata

Dialogue between Maharishi Vedvyasa and Drupada revealing the secret of previous lives of Pandavas and Devi Draupadi.
व्यास उवाच
पुरा वे नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते।
तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत् तदा॥

पाञ्चाल नरेश पूर्व काल की बात है नैमिषारण्य क्षेत्र में देवता लोग एक
यज्ञ कर रहे थे उस समय वहाँ सूर्यपूत्र यम शामित्र यज्ञ कार्य करते थे।
ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन् नामारयत् कंचिदपि प्रजानाम्।
ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः कालातिपातान्मरणप्रहीणाः॥

राजन् उस यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण यमराज ने मानवप्रजाकी मृत्यु का कार्य
स्थगित कर दिया था
Read 81 tweets
Jan 9
।।श्रीपञ्चनदीशाष्टकम्।।

महादेव भवाकार नीलकण्ठ त्रिलोचन।
शिवशङ्कर सर्वात्मन् पाहि पञ्चनदीपते॥ १॥
त्रिपुरान्तक सर्वेश चन्द्रशेखर धूर्जटे।
वामदेव क्रतुध्वंशिन् रक्ष पञ्चनदीपते॥ २॥
देवदेव जगन्नाथ पार्वती रमणप्रभो।
भूतेश सर्व कौमारे पाहि पञ्चनदीपते॥ ३॥
शम्भो पशुपते स्थाणो गङ्गाधर मृढाव्यय।
नागाभरण विश्वेश पाहि पञ्चनदीपते॥ ४॥
पिनाकपाणे श्रीकण्ठ कपाल धृतशेखर।
अघोरसद्योजातत्वं पाहि पञ्चनदीपते॥ ५॥
शूलिन् कपर्दिन् गिरीश भवोद्भव मनोन्मम।
अस्तिभूष दयासिन्धो पाहि पञ्चनदीपते॥ ६॥
व्योमकेश त्रयीनाक वेदान्ताम्बुज भास्कर।
स्वयम्प्रकाश चिद्रूप पाहि पञ्चनदीपते॥ ७॥
सर्पराजोर्ध्व सम्बद्ध जटामण्डलमण्डित।
पिनाकमृग दृग्देव पाहि पञ्चनदीपते॥ ८॥
ममाष्टकमिदं स्तोत्रं प्रतियाम विशेषतः।
पठते वाञ्छितं सर्वं प्रयच्छामि द्विजोत्तम॥ ९॥
Read 4 tweets
Jan 8
।।श्री सूर्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र।।

सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥

कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः।
कला काष्ठा मुहुर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥

लोकाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः ।
कालाध्यक्षः
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ ९॥

भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ १०॥
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Dec 21, 2022
॥वैशम्पायन उवाच॥
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम्॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्टा राजेन्द्र ते अन्योन्यस्य प्रियंवदे॥
जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
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