पहले सरकार बैंकरों के पीछे पड़ी। नोटबंदी करवाई, बिना कोलैटरल की लोन स्कीम्स लांच करवाई, बैंकों पर आधार और बीमे का बोझ डाला, स्टाफ में कटौती की। नोटबंदी के बाद साहब ने कहा कि बैंक वालों ने जितना काम नोटबंदी में किया उतना पूरी जिंदगी में कभी नहीं किया।
जो समझदार थे वो इस बेइज़्ज़ती को समझ गए। साहब ने एक झटके में बैंकरों सर्कस का निकम्मा जानवर और खुद को कुशल रिंगमास्टर घोषित कर दिया। कोरोना में बैंक खुलवाए जबरदस्ती के लोन बंटवाए लेकिन कोरोना वारियर्स मानने से मना कर दिया।
फिर बैंकों के निजीकरण का प्रस्ताव लेकर आयी। लोग खुश हो गए। अब मजा आएगा इन सरकारी बैंक वालों को। साले निकम्मे कहीं के। आटे दाल का भाव पता चलेगा जब प्राइवेट बैंक में आधी सैलरी पर काम करना पड़ेगा। लोन देने में नखरे करते थे, पासबुक प्रिंट करने में नखरे करते थे, दस नियम समझाते थे।
अब जब प्राइवेट हो जाएंगे तो घर आकर लोन देंगे, फ़ोन पे बैलेंस बताएँगे, बैंक जाएंगे तो चाय भी पिलायेंगे। खैर अब सच्चाई तो जब खुलेगी तब खुलेगी। लेकिन सच्चाई की परतें अब खुला शुरू हो गयी हैं।
सरकार ने ये साफ़ कर दिया है कि गाज सिर्फ बैंक वालों पर नहीं गिरेगी, बल्कि 'शुद्ध सरकारी" बाबू भी इसकी चपटे में आएंगे। जो बाबू सरकारी बैंकों तो SM पे ज़लील करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे और बैंकों के निजीकरण पर खुश हो रहे थे अब वो भी सकते में हैं।
अभी भी कई लोगों को समझ नहीं आया है। एक ही फार्मूला सब पर लागू किया जाने वाला है। सरकारी टीचर, डॉक्टर, सफाईकर्मचारी, रेलवे कर्मचारी, इंजीनियर, कोई नहीं बचेगा। क्यूंकि एफिशिएंसी का खेल तो सबके साथ खेला जा सकता है।
मुनाफा कोई सरकारी विभाफ प्राइवेट से ज्यादा नहीं दे सकता। अब रेलवे को ले लीजिये। साल भर हो गया। कोरोना के नाम पर बंद हुई रेल व्यस्था अभी तक ठीक से चालू नहीं हुई है। अब बाद में साहब घाटे का हवाला देकर रेल भी बेच देंगे।
निजीकरण के धुरंधर फिर ताली बजायेंगे। और तब तक बजायेंगे जब तक मदारी के इस खेल में वे खुद बन्दर नहीं बन जाते। तब तक दाढ़ी वाले मदारी बाबा का खेल देखिये और तालियां बजाइये।
1. Japan's external security was taken care by America for 70 years. Japan grew fast when they had no govt sponsored army. Better efficiency. So as per your logic external security can be privatized. You just need to find a suitable candidate. #WealthLooters
2 &3. Internal Security and law and order: Police and judiciary are one the most corrupt and inefficient institutions. There are many private security agencies. Why not privatise police and judiciary?
4. Civil amenities: US has negligible public health, transport, education. All is run by private sector. Anyway you know the condition of Indian govt schools and hospitals. Isn't it better to privatise them too? Banking is also a civil amenity, civil aviation, hotels too.
लोगों को सरकार और राजनीती के बारे में काफी भ्रम हैं। लोगों को लगता है कि नेता नीति बनाते हैं। गलत। नेता केवल नीति बताते हैं। बनाने और लागू करने का काम नौकरशाह ही करते हैं। नौकरशाह को जनता नहीं चुनती। ना ही हटा सकती है।
ये परीक्षा देकर आते हैं और रिटायर होकर जाते हैं। वहीँ नेता को जनता चुनती है और जनता ही हटाती है। नौकरशाहों को नेता भी नहीं हटा सकते, केवल परेशान कर सकते हैं। संविधान का आर्टिकल 311 उनकी रक्षा करता है। मतलब नौकरशाह परमानेंट हैं और नेता टेम्पररी।
सरकार कोई भी आये नीति वही रहती है, क्यूंकि नौकरशाह भी तो वही है। हाँ उसको जनता के सामने लाने का तरीका बदल जाता है, क्योंकि नेता बदल जाता है। मंडल कमीशन बनाया इंदिरा ने और लागू किया राजीव गाँधी के धुर विरोधी वी पी सिंह ने।
साहब ने कहा कि बाबुओं के हाथ में देश देकर क्या होगा। इस एक वक्तव्य ने सरकार की मंशा को साफ़ कर दिया है। जी नहीं, सरकार बाबूगिरी नहीं हटाने वाली। बाबूगिरी तो रहेगी लेकिन पहले वाले बाबू अब नहीं रहेंगे।
पहले वाले बाबू सरकारी परीक्षा पास करके, पूरी दुनिया की नॉलेज लेके, मेहनत करके आते थे। अब नए बाबू आएंगे। ये बाबू अपने बॉस से सिफारिश लगा के, नेताजी के चरण धो के, चापलूसी का एग्जाम पास करके आएंगे। पहले छोटे गांवों और गरीब परिवारों के लोग भी बाबू बनने का सपना देख सकते थे।
अब ऐसा नहीं होगा। अब महंगे कॉलेज से MBA करे हुए, विदेशी यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए, भारत को "So poor country" कहने वाले बाबू आएंगे। गांव वाले लोगों के लिए अब देश में कोई जगह नहीं। क्यूंकि गांव के लोग गंध मारते हैं। आजकल की सरकार को विदेशी परफ्यूम पसंद है।
हर सरकार कुछ अच्छे काम करती है कुछ बुरे काम भी करती है। किसी भी सरकार का मूल्यांकन उसके कामों से होना चाहिए न कि व्यक्ति विशेष से। बात अगर मुद्दों पर हो तो लॉजिकल कन्क्लूजन तक पहुंच सकती है। एक लॉजिकल कन्क्लूजन के आधार पर बनी हुई राय ही संघर्ष में टिक पाती है।
अन्यथा आपको विपक्ष का मोहरा बता कर खारिज किया जा सकता है। इसके लिए हमको अपनी राजनीतिक विचारधारा को एक तरफ रख के मुद्दों का विश्लेषण करना होता है। जो चीज आपको गलत लगे उसका जम कर विरोध कीजिये।
मगर किसी चीज का सिर्फ इसलिए विरोध मत कीजिये क्यूंकि वो किसी व्यक्ति विशेष से जुडी है। और विरोध में एक मर्यादा भी आवश्यक है। हम ट्रोल्स का जवाब ट्रोलिंग से दे सकते हैं मगर ट्रोलिंग को विरोध का मुख्य हथियार बना लेना हमारे विरोध को ही कमज़ोर करता है।
ये तभी सफल हो सकता है जब स्टाफ पर्याप्त हो। लाखों पोस्ट हर विभाग में खाली पड़ी हैं। ऐसे में आप 4 डे कीजिये 3 डे कीजिये या पूरा हफ्ता ऑफ कर दीजिए, कोई मतलब नहीं। छुट्टी के दिन बुलाना आम हो जाएगा, जनता को तो समस्या होगी ही, और जो पहले से निकम्मे थे वो और निकम्मे हो जाएंगे।
एक दिन का बचा हुआ काम ईमानदार लोगों के माथे आ पड़ेगा। 4 डे वीक के चक्कर में वे बेचारे रात को 10 बजे तक आफिस में खटेंगे। जरूरत इस तरह की लीपापोती की नहीं मैनपावर रेशनलाइजेशन की है। जहां जरूरत है वहां आदमी दीजिये। जिनके पास जरूरत से ज्यादा पावर है उनकी पावर कम हो।
DM के पास भूराजस्व, लॉ एंड आर्डर, क्षेत्र विकास, सामान्य प्रशासन, प्रोटोकॉल ड्यूटी, इमरजेंसी ड्यूटी, चुनाव ड्यूटी, और भी न जाने कितने काम हैं। SP साहब को पूरे जिले की पुलिस का जिम्मा थमाया हुआ है।
Sir,
New Zealand has population less than Ahmedabad and one fourth of New Delhi. Still New Zealand has one whole vote in UNGA. Same true for Scandinavian Countries. They don't have much scope for administration, governance and growth.
In fact, in many developed countries at the seat of Mayor, they have elected some dog or cat, as there is no real work there. These countries practically run themselves. This gives them scope for becoming mediator for the issues in other countries.
In case of LTTE and Sri Lanka issue, it was Norway which became mediator. In case of Iran and US, Germany became mediator. Norway actually tried to meddle many times in Kashmir issue.