(1/7)भारत के पर्व-त्योहार, परंपराओं और रीति-रिवाजों ने देश की अपरंपार विविधताओं को बचाने में सबसे बड़ा योगदान दिया है।
अब नोनी की ही बात कर ली जाए, अगर जितिया (जीवित पुत्रिका व्रत) जैसा कोई व्रत नहीं होता, तो इस बेहद गुणकारी भोज्य पदार्थों का अस्तित्व रहता?
(2/7)आज जितिया व्रत का शुभारंभ नहाय-खाय के साथ हुआ है। इस व्रत में नोनी का साग, मरुआ के आटे की रोटी, झिंगनी (तोरी) इत्यादि चीज़े खाई जाती हैं और इसी बहाने इन सब चीज़ों का नई पीढ़ी से नाता जुड़ पाता है।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में, हम सब ने अपने आपको बेहद समेट लिया है।
(3/7)अब अपने आप को खोलने की जरूरत है। अपने खानपान में मडुआ, नोनी जैसे सैकड़ों स्वास्थ्यवर्धक वस्तुओं को शामिल करने की जरूरत हैं।आइये इस पोस्ट में इन दोनों गुणकारी चीजों से जुड़ी कुछ बातें जानते हैं।
नोनी दो प्रकार की होती हैं। एक छोटी नोनी जो जिउतिया पर्व में खाया जाता है,
(4/7)जबकि बड़ी नोनी को झारखंड में गोलगोला साग कहा जाता है। गोलगोला साग में कैल्शियम व आयरन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। झारखंड के गांवों में गर्भवती महिलाएं आयरन की गोली के साथ, इस साग का सेवन करती हैं, जिससे स्तन में दूध ज्यादा होता है।
(5/7)स्थानीय ग्रामीण, चेचक होने पर भी इसका सेवन करते हैं। इससे चेचक के दाग जल्दी भर जाते हैं। इसके ताजे पत्तों का रस पीने से पेशाब खुला होता है, पेट के कीड़े मरते हैं तथा सूखी खासी में आराम मिलता है। आंखों की जलन, मसूढ़ों की जलन, मुंह का कड़वापन,
(6/7)ताजे पत्ते खाने या पकाकर खाने से लाभ होता है।
नोनी साग गर्मी के मौसम में उगती है। यह हर जगह पायी जाती है। बिहार की महिलाएं, जितिया पर्व में छठव्रत में भी कुछ प्रांतों में उपवास के पहले या बाद में साग बनाकर खाती हैं।
(7/7)उपवास के बाद, उन्हें मलबद्धता होती है। अधिक दिनों तक यह व्याधि न हो, इसलिए इसका सेवन किया जाता है। नोनी आंव की बीमारी दूर करने के अलावा, यकृत या लीवर को भी ठीक रखता है। #culture#traditionalfood
साभार : लवकुश
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(1/7)वह दिल्ली के लोधी कॉलोनी में एक मध्यम वर्गीय परिवार में पले-बढ़ें।
उनके पिता एक सरकारी सेवक थे और उनका निवास स्थान भी सरकारी था।
वह दयाल सिंह कॉलेज गए और पढ़ाई पूरी होने के बाद, अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया। एक समय ऐसा भी था, जब वह 'रसना' ब्रांड के इकलौते वितरक थे।
(2/7)उनका लाजपत नगर में एक बड़ा गोदाम भी था, जिसमें 7-8 ऑटो थे, पूरे दिल्ली में रसना की डिलीवरी करते। उनका नाम, हर बाजार में लोग जानते थे। ज़िन्दगी खुशनुमा थी।
फिर वक्त ने करवट बदली और 1984 के दंगे हुए। उन्होंने अपना गोदाम, 8 ऑटो और यहां तक कि डीलरशिप भी खो दी।
(3/7)कई खाद्य कंपनियों के साथ काम करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। इसलिए उन्होंने एक टैक्सी खरीदी,, और उसे चलाकर जीवन फिर से शुरू किया।
छह-सात साल बाद मसूरी से लौटते समय उनका एक भयानक एक्सीडेंट हो गया।
13 दिन से कोमा में थे। देहरादून के एक अस्पताल में होश आया,
"मुझे आज भी याद है कि एक सैनिक ने कहा था, 'बहनजी मुझे जल्द से जल्द ठीक करो ताकि मैं देश के लिए फिर से बलिदान दे सकूं,'" यह कहना है 94 वर्षीय रमा खंडेलवाल का। 1/13
आज़ादी की लड़ाई में रमा, आज़ाद हिन्द फ़ौज का हिस्सा थीं और अपनी काबिलियत के बल पर उन्होंने सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट होने का सम्मान प्राप्त किया था। एक समृद्ध परिवार से आने वाली रमा ने अपने देश के लिए सभी सुख-सुविधाओं को त्याग दिया था। 2/13
देशभक्ति की यह भावना उन्हें अपने दादाजी और माँ से मिली, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
रमा बतातीं हैं कि फ़ौज के सभी सैनिकों को ज़मीन पर सोना होता था और वो फीका खाना खाते थे। फिर पूरा दिन ट्रेनिंग करते, वह भी बिना आराम किए। 3/13