UPSC हो या Banking सरकारी नौकरियों में ऐसे बहुत हैं जो 22 साल की उम्र में एक ही अटेम्प्ट में कॉलेज से निकलते ही नौकरी पा गए और उस नौकरी के दम पर अपने को फन्ने खां समझने लगे। इनमें से कइयों ने बाहर की दुनिया देखी ही नहीं। न इन्होनें कभी बाहरी जिंदगी का संघर्ष झेला।
ये लोग एक कूप मंडूक का जीवन जी रहे हैं। मेरी पिछली ब्रांच का ब्रांच मैनेजर स्केल 3 था। जबकि मैं सिर्फ PO। मजे की बात ये है वो उम्र में मुझसे छोटा था। शायद ये बात उसको पता थी। इसलिए अक्सर अपने इस 'अचीवमेंट' के बारे में मुझे केबिन में बुला कर बताया करता था।
मैंने उसे अपने बारे में कभी नहीं बताया लेकिन मेरी सर्विस फाइल से उसे ये पता लग गया कि मैंने UPSC के लिए ट्राई किया था। ये बात उसके लिए काफी ईगो सेटिस्फाइंग थी कि उससे अधिक ऐज का बंदा, जो कि IITian भी है न केवल एग्जाम में फेल हुआ है बल्कि आज उसके नीचे काम कर रहा है।
ये ज़ाहिर करने में वो कभी कोई कसर नहीं छोड़ता था कि कैसे उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य SBI PO बनना था और कैसे उसने एक ही बार में SBI PO क्वालीफाई कर लिया। एक बार ऐसे ही बैंकों के प्राइवेटाइजेशन पर बात चल रही थी तो सर बोले कि "प्राइवेटाइजेशन से उनको डर लगता है जो निकम्मे हैं।
इन फैक्ट, प्राइवेटाइजेशन तो हमारे लिए अच्छा है क्यूंकि हमारे जैसे टैलेंटेड लोगों को आगे आने का मौका मिलेगा।" मैंने सिर्फ एक ही सवाल पूछा, "सर, क्या आपने कभी प्राइवेट में काम किया है?" जवाब सुनने के बाद मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं बची।
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एक बात तो माननी पड़ेगी। ये सरकार एफिशिएंट तो बहुत है। और ये बात मैं साबित कर सकता हूँ। पिछली सरकारें बेवकूफ थीं। कभी गरीबी मिटाओ, कभी घर बनाओ, कभी रोजगार दिलाओ, कभी भुखमरी हटाओ, ये सब छोटी छोटी योजनाओं पे काम करती थी।
और फिर हर पांच साल बाद अपना काम लेकर पब्लिक के पास जाती थी "भाई हमारा काम देखो और हमें वोट दो"। बीच बीच में जाति और धर्म का तड़का भी लगता था मगर वो भी छोटे लेवल पर। नयी सरकार को समझ आ गया कि ये तरीका एफ्फिसिएंट नहीं है।
पहले तो योजनाएं बनाओं, फिर लागू करवाओ। अब इतना काम करो, फिर उसे लेकर पब्लिक के पास जाओ। और उसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि आपको वोट मिल ही जाएगा। और वैसे भी योजनाएं छोटी हैं तो करप्शन भी छोटा ही होगा। इतनी मेहनत करो और न सत्ता मिले और पैसा भी कोई ज्यादा नहीं।
आज एक ऐसे बैंक के बारे में बात करते हैं जो शायद शीघ्र ही इतिहास के हवाले कर दिया जाएगा।
कहा जाता है गुलाम भारत ब्रिटिश साम्राज्य के ताज का हीरा था।
इस हीरे को पकडे रखने के लिए अंग्रेजों के लिए ये ज़रूरी था कि भारत को अविकसित ही रखा जाए। इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की कि भारत में उद्योगों पर पूरी तरह से अंग्रेजों का ही कब्ज़ा रहे। इसके लिए भारतीय उद्योगों के प्रति भेदभावपूर्ण नीति अपनाई गई, और उसी का भाग था बैंकिंग।
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले सारे बैंक अंग्रेजों के ही अधिकार में थे। ये सिर्फ सरकार के इशारे पे ही चलते थे। भारतीय इस बात को बखूबी समझते थे कि बिना सम्पूर्ण भारतीय बैंक के स्वदेशी और स्वराज्य का सपना पूरा नहीं हो सकता। मगर भारतीयों को आधुनिक बैंकिंग का अधिक अनुभव नहीं था।
बैंक नीलाम हो रहे हैं। साथ में नीलाम हो रहा है बैंक कर्मचारियों का भविष्य और ग्राहकों का विश्वास। जनता तो अभी रिंकू और दिशा में व्यस्त है। उनको ज्यादा पता नहीं। जिस मीडिया पर जनता को सच्चाई बताने का जिम्मा है वो तो खुद पासबुक लेके प्रिंट कराने घूम रहा है।
बैंकरों को लग रहा है कि सरकार ने तानाशाही रवैया अपनाते हुए ये एकतरफा फैसला लिया है। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। रवैया तो तानाशाही है मगर फैसला एक तरफ़ा नहीं है। इस फैसले में सब मिले हुए हैं।
लोकतंत्र में संतुलन बनाये रखने वाला विपक्ष भी और स्वयं को बैंकरों का मसीहा मानने वाले बैंक यूनियन भी। विपक्ष इसलिए क्यूंकि चुनाव लड़ने के लिए इनको भी तो पैसा चाहिए। और चार राज्यों में चुनाव आ ही रहे हैं। और अभी पुदुच्चेरी में भी इनकी सरकार डांवाडोल है।
1. Japan's external security was taken care by America for 70 years. Japan grew fast when they had no govt sponsored army. Better efficiency. So as per your logic external security can be privatized. You just need to find a suitable candidate. #WealthLooters
2 &3. Internal Security and law and order: Police and judiciary are one the most corrupt and inefficient institutions. There are many private security agencies. Why not privatise police and judiciary?
4. Civil amenities: US has negligible public health, transport, education. All is run by private sector. Anyway you know the condition of Indian govt schools and hospitals. Isn't it better to privatise them too? Banking is also a civil amenity, civil aviation, hotels too.
पहले सरकार बैंकरों के पीछे पड़ी। नोटबंदी करवाई, बिना कोलैटरल की लोन स्कीम्स लांच करवाई, बैंकों पर आधार और बीमे का बोझ डाला, स्टाफ में कटौती की। नोटबंदी के बाद साहब ने कहा कि बैंक वालों ने जितना काम नोटबंदी में किया उतना पूरी जिंदगी में कभी नहीं किया।
जो समझदार थे वो इस बेइज़्ज़ती को समझ गए। साहब ने एक झटके में बैंकरों सर्कस का निकम्मा जानवर और खुद को कुशल रिंगमास्टर घोषित कर दिया। कोरोना में बैंक खुलवाए जबरदस्ती के लोन बंटवाए लेकिन कोरोना वारियर्स मानने से मना कर दिया।
फिर बैंकों के निजीकरण का प्रस्ताव लेकर आयी। लोग खुश हो गए। अब मजा आएगा इन सरकारी बैंक वालों को। साले निकम्मे कहीं के। आटे दाल का भाव पता चलेगा जब प्राइवेट बैंक में आधी सैलरी पर काम करना पड़ेगा। लोन देने में नखरे करते थे, पासबुक प्रिंट करने में नखरे करते थे, दस नियम समझाते थे।
लोगों को सरकार और राजनीती के बारे में काफी भ्रम हैं। लोगों को लगता है कि नेता नीति बनाते हैं। गलत। नेता केवल नीति बताते हैं। बनाने और लागू करने का काम नौकरशाह ही करते हैं। नौकरशाह को जनता नहीं चुनती। ना ही हटा सकती है।
ये परीक्षा देकर आते हैं और रिटायर होकर जाते हैं। वहीँ नेता को जनता चुनती है और जनता ही हटाती है। नौकरशाहों को नेता भी नहीं हटा सकते, केवल परेशान कर सकते हैं। संविधान का आर्टिकल 311 उनकी रक्षा करता है। मतलब नौकरशाह परमानेंट हैं और नेता टेम्पररी।
सरकार कोई भी आये नीति वही रहती है, क्यूंकि नौकरशाह भी तो वही है। हाँ उसको जनता के सामने लाने का तरीका बदल जाता है, क्योंकि नेता बदल जाता है। मंडल कमीशन बनाया इंदिरा ने और लागू किया राजीव गाँधी के धुर विरोधी वी पी सिंह ने।