कल ये फोटो देखी। ये कोई साधारण फोटो नहीं है। ये एक रोंगटे खड़े कर देने वाली, आत्मा को झकझोर देने वाली वीभत्स फोटो है। उतनी ही वीभत्स जितनी गाँधी की हत्या वाली फोटो, वियतनाम में अमरीकी नेपाम अटैक से भागती हुई छोटी सी बच्ची की फोटो,
तुर्की के समुद्र तट पर औंधे मुँह पड़ी हुई बच्चे के लाश वाली फोटो, जली हुई साबरमती ट्रेन और उसके बाद हुए गुजरात के दंगों में हाथ जोड़कर जान की भीख मांगने वाले उस आदमी की फोटो, ISIS द्वारा अमरीकी पत्रकार का गला काटने वाली फोटो,
1943 के बंगाल के अकाल में भूख से मरे लोगों की फोटो, वियतनाम कांग्रेस सदस्य की हत्या की फोटो। ये फोटो इतिहास के काले पन्नों में दर्ज की जायेगी, और सदियों तक भारत में चल रहे लोकतंत्र नमक झूठ की पोल खोलती रहेगी।
इस फोटो में आप साफ तौर पर दो वर्ग देख सकते हैं, पहला शासक वर्ग और दूसरा शोषित वर्ग। ये शासक तथाकथित लोकतंत्र में चुनकर आये हैं। शासक के चारों तरफ हैं पढ़े लिखे हाइली क्वालिफाइड सिविल सर्वेन्ट्स, जो देश की सबसे मुश्किल परीक्षा पास करके आते हैं,
जिनका काम होता है लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करना, जनता की सेवा करना। इन सबके नीचे बिछा हुआ है रेड कारपेट। बगल में दो कतारों में जनता जमीन पर घुटनों पर झुकी हुई है, सर नीचे किये हुए, अपने शासक को सलामी देते हुए।
जनता के पीछे हैं बंदूकधारी सैनिक जिनका काम तो जनता की रक्षा करना था मगर अब वे जनता को झुकाने के काम आ रहे हैं। संविधान में आर्टिकल 14, 15,16 में दिया हुआ स्वतंत्रता का अधिकार, आर्टिकल 23 में प्रतिबंधित बेगारी और आर्टिकल 24 में प्रतिबंधित बाल मजदूरी
सबकी पोल यहां एक ही झटके में खुल गई है। मैंने कहानियों में पढ़ा है कि जब मध्यकालीन शासक वर्ग आम रास्तों पर निकला करता था तो उनके लिए रास्तों को गुलाबजल से धोया जाता था, मार्ग के दोनों तरफ इत्र छिड़का जाता था।
उनके गुलाम हुआ करते थे जिनको बादशाह और उनकी बेगमों को देखने की इज़ाज़त नहीं होती थी, वे रास्ते के दोनों तरफ सर झुका कर खड़े रहते थे, और शासक उनको देखकर अपनी शक्ति का अनुभव करते थे। कुछ कुछ ऐसा ही यहां हो रहा है।
लोग तर्क दे रहे हैं कि यहां गलती व्यवस्थापकों की है, जिन्होंने मुख्यमंत्रीजी को खुश करने के लिए ऐसा किया। लेकिन क्या मुख्यमंत्री इसको नहीं रोक पा रहे थे? उन्होंने ऐसा होने दिया क्यूंकि उनको भी लग रहा था कि जनता को उनके सामने ऐसे ही रहना चाहिए।
कुछ लोग कह रहे हैं कि बच्चों ने मंत्रीजी के सम्मान में ऐसा किया। मतलब मंत्रीजी वास्तव में मानते हैं कि वे इतने महान और सम्माननीय हैं कि उनको लोग इस प्रकार सर झुककर घुटनों के बल झुककर सम्मान दें। विद्यालयों में हम देश का भविष्य तैयार करते हैं।
हमारे शिक्षक, नीति निर्धारक और शासक कैसा भविष्य चाहते हैं इस फोटो में साफ़ देखा जा सकता है। ये नहीं चाहते कि जनता इसके सामने कभी आत्मसम्मान से साथ खड़ी हो, अपनी बात कहे, अपना हक़ मांगे, सवाल पूछे।
ये चाहते हैं इनके इशारों पर चलने वाले, इनको भगवान मानने वाले, सदा इनके नीचे रहने वाले लोग। ये एक तस्वीर भारत के वर्तमान और भविष्य के बारे में बहुत कुछ कह जाती है। ये तस्वीर एक चेतावनी है हमारे लिए कि हमारे बच्चों को कैसी शिक्षा दी जा रही है, क्या सिखाया जा रहा है,
उनसे क्या उम्मीद की जा रही है। ये सिर्फ स्कूलों की बात नहीं है, आज देश के सारे संस्थान शासक वर्ग के गुलाम होते जा रहे हैं। ये अब जनता के नहीं बल्कि शासक वर्ग के भले के लिए काम करते हैं। सरकारी कंपनियों का निजीकरण भी इसकी ही बानगी है।
सशक्त नागरिक, आत्मनिर्भर जनता, सामाजिक समानता ये सब सिर्फ ढकोसले हैं। सच्चाई वही है जो इस तस्वीर में दिख रही है। दुःख इस बात का है कि ये वही देश है जहां राम ने निषादराज को गले लगाया था, शबरी के झूठे बेर खाये थे,
कृष्ण ने युधिष्ठिर के यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोये थे, 14 साल के नचिकेता ने यमराज से वाद-विवाद किया था, नामदेव भूख पेट कुत्ते के पीछे रोटी लेकर भागे थे। ये क्या हो गया है इस देश को।
समानता को गलती से स्वतंत्रता लिख दिया है। गलती के लिए खेद है।
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बैंक कंपनियां नहीं हैं। बैंक पब्लिक इंस्टीटूशन (जन संस्थान) हैं। कंपनी का काम होता है प्रॉफिट कमाना। पब्लिक इंस्टीटूशन का काम होता है पब्लिक सर्विस देना। गाड़ियां बनाना कंपनी का काम है, सड़कें बनाना पब्लिक सर्विस है।
बस बनाना कंपनी का काम है, पब्लिक ट्रांसपोर्ट पब्लिक सर्विस है। दोनों को एक ही तराजू में नहीं तोल सकते। अभी साहब ने कहा कि "Government has no business to be in business"। लेकिन ये तो बिज़नेस के नाम पर पब्लिक इंस्टीटूशन बेच रहे हैं।
अभी सरकार ने कहा कि छोटी दूरी की रेल यात्रा के दाम इसलिए बढ़ाए जा रहे हैं ताकि लोग बेमतलब यात्रा न करें। इससे पहले खानपान पर रोक लगी थी। फिल्में और किताबें तो आये दिन बैन होती ही रहती हैं। Porn देखने पर पहले केंद्र सरकार ने पाबन्दी लगाई और अब UP सरकार पुलिस की धमकी दे रही है।
कोरोना में तो रातों रात लोगों को बिना पूर्व चेतावनी के छह महीनों के लिए घरों में कैद कर दिया था। उससे पहले लोगों को तीन घंटे का नोटिस देकर बैंकों के बाहर लाइन में लगवा दिया था। ऐसे नहीं है कि ये सब अभी शुरू हुआ है। ये माइक्रो मैनेजमेंट तो अंग्रेजों के ज़माने से चला आ रहा है।
आप अपनी मर्जी से पेड़ नहीं उगा सकते, न पानी मर्जी से पेड़ काट सकते हो। किसान को भी अगर खेत में कोई दूसरी फसल उगानी है तो पहले सरकार से परमिशन लेनी पड़ेगी। जमीन बेचनी है तो सरकार से परमिशन, जमीन पर घर बनाना है तो परमिशन, कुआँ खोदना है तो परमिशन।
कल ही सरकार ने घोषणा की कि गवर्नमेंट बिज़नेस अब प्राइवेट बैंक भी कर सकेंगे। जी नहीं, गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब सरकारी स्कीम्स लागू करना नहीं होता। गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब ट्रेज़री बिज़नेस।
सरकार की तरफ से टैक्स और अन्य सरकारी चालान जमा करना, रेवेन्यू रिसीप्ट जमा करना, पेंशन पेमेंट्स, ट्रेज़री की तरफ से पेमेंट करना। चेक टाइप नंबर 20 यानी स्टेट गवर्नमेंट ट्रेज़री चेक जारी करना इसी गवर्नमेंट बिज़नेस का एक भाग है।
ट्रेज़री एकाउंट्स अनलिमिटेड डेबिट अकाउंट होते हैं जिनके हर साल के अंत में क्रेडिट अकाउंट से रिकन्साइल किया जाता है और उसी के हिसाब से सरकार का आमदनी-खर्चा डिसाइड होता है। आज तक ये सारा काम सिर्फ SBI ही करती थी (दूसरी कोई और भी बैंक करती हो तो मेरी जानकारी में नहीं है)।
पिछले 3-4 सालों से एक चीज लगातार देखने को मिल रही है और वो ये कि सरकार की पैसे की डिमांड बहुत बढ़ गई है। साम-दाम-दंड-भेद सरकार ने राजस्व बटोरने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा है।
1. सर्विस टैक्स को GST में शामिल करके 18% की स्लैब में डाल दिया। 2. कार्बन टैक्स बोल के पेट्रोलियम पदार्थों पर बेतहाशा टैक्स लगा दिया। 3. केरोसिन, LPG वगैरह पर से सब्सिडी बिलकुल ख़त्म कर दी। 4. शराब और सिगरेट पर भी लगातार टैक्स बढ़ाये हैं। #CorporatePuppetGOVT
5. PSUs से लगातार डिविडेंड वसूला है। 6. सरकारी उपक्रमों की बिक्री पूरे जोश में चालू है। 7. RBI से भी पौने दो लाख करोड़ वसूला है। 8. इन्फ्लेशन की रेट 4% है मगर आयकर की स्लैब में उस हिसाब से बदलाव नहीं आये हैं। #CorporatePuppetGOVT
1990 के दशक के शुरुआत में लंदन में कुछ कंपनियों में बड़े घपले हुए। इनके नेपथ्य में था 1979 में मार्गरेट थेचर के नेतृत्व में शुरू हुआ निजीकरण का दौर (ब्रिटेन के निजीकरण के बारे में किसी और दिन बात करेंगे)।
दरअसल 1980 के दशक में निजी कंपनियों में दूसरी कंपनियों के अधिग्रहण की जबरदस्त होड़ मची। पैरेंट कंपनियां खूब उधार लेकर दूसरी कंपनियों को खरीद रही थी। इससे कंपनियों के ऊपर बहुत कर्ज बढ़ गया था। ऐसी ही एक कंपनी थी मैक्सवेल कम्युनिकेशन्स।
इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों के पेंशन फंड्स में सेंध लगा कर अधिग्रहण के लिए फंड्स जुटाए थे। कुछ ही सालों में कंपनी पर कर्ज इतना बढ़ गया कि 1992 में कंपनी ने बैंकरप्सी फाइल कर दी। उसी साल इंग्लैंड की ही Bank of Credit and Commerce International (BCCI) भी डूब गई।
एक बात तो माननी पड़ेगी। ये सरकार एफिशिएंट तो बहुत है। और ये बात मैं साबित कर सकता हूँ। पिछली सरकारें बेवकूफ थीं। कभी गरीबी मिटाओ, कभी घर बनाओ, कभी रोजगार दिलाओ, कभी भुखमरी हटाओ, ये सब छोटी छोटी योजनाओं पे काम करती थी।
और फिर हर पांच साल बाद अपना काम लेकर पब्लिक के पास जाती थी "भाई हमारा काम देखो और हमें वोट दो"। बीच बीच में जाति और धर्म का तड़का भी लगता था मगर वो भी छोटे लेवल पर। नयी सरकार को समझ आ गया कि ये तरीका एफ्फिसिएंट नहीं है।
पहले तो योजनाएं बनाओं, फिर लागू करवाओ। अब इतना काम करो, फिर उसे लेकर पब्लिक के पास जाओ। और उसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि आपको वोट मिल ही जाएगा। और वैसे भी योजनाएं छोटी हैं तो करप्शन भी छोटा ही होगा। इतनी मेहनत करो और न सत्ता मिले और पैसा भी कोई ज्यादा नहीं।