बैंक कंपनियां नहीं हैं। बैंक पब्लिक इंस्टीटूशन (जन संस्थान) हैं। कंपनी का काम होता है प्रॉफिट कमाना। पब्लिक इंस्टीटूशन का काम होता है पब्लिक सर्विस देना। गाड़ियां बनाना कंपनी का काम है, सड़कें बनाना पब्लिक सर्विस है।
बस बनाना कंपनी का काम है, पब्लिक ट्रांसपोर्ट पब्लिक सर्विस है। दोनों को एक ही तराजू में नहीं तोल सकते। अभी साहब ने कहा कि "Government has no business to be in business"। लेकिन ये तो बिज़नेस के नाम पर पब्लिक इंस्टीटूशन बेच रहे हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, कानून व्यस्था, पोस्ट, टेलीकॉम ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जीना पर आधुनिक आम जनजीवन निर्भर होता है। इन्हें पूरे तरह से प्राइवेट को देना सीधे सीधे जनता के साथ विश्वासघात है। विश्वासघात कैसे?
अब वहाँ एक प्राइवेट कंपनी महंगा बोर्डिंग स्कूल चलाती है जिसमें देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, विदेशी राजदूतों के बच्चे पढ़ते हैं। लेकिन वही प्राइवेट स्कूल कभी भी वहाँ के गरीब स्थानीय बच्चों को भर्ती नहीं करेगा। #India_Needs_PublicSectorBanks
उसकी पढाई भी अंग्रेजी में होगी। स्थानीय संस्कृति से उसका कोई लेना देना भी नहीं होगा। इसलिए स्थानीय लोगों को उसमें रोजगार भी नहीं मिलेगा। क्योंकि उसका उद्देश्य पैसा कमाना है।
तभी तो गांवों में फ्री में मिलने वाले गोबर के उपले अमेज़न पर 300 के 6 मिलते हैं। जिनको MNCs और उनके प्रोडक्ट्स चाहिए उनके लिए आप बेशक भारत में MNCs को आमंत्रित कीजिये।
लेकिन सिर्फ इसलिए कि अमेज़न वाला गोबर के उपले 300 के 6 बेच पाए इसके लिए गांव की गाय बेचना कहाँ तक सही है? वही बात बैंकों पर भी लागू होती है। ग्रामीण ब्रांचों में प्रॉफिट मार्जिन कम ही होता है, कई बार घाटा भी होता है।
साथ ही अगर शहरी ब्रांचों की बात करें तो वहाँ भी कम बैलेंस वाले खाते बैंक के प्रॉफिट मार्जिन में बट्टा ही लगाते हैं। और ये बात ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी और प्राइवेट बैंकों की ब्रांचों के अनुपात को देख कर आसानी से समझी जा सकती है।
कोटक महिंद्रा बैंक की केवल 34% ब्रांचें रूरल और सेमी अर्बन एरिया में हैं, वहीँ सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया की 63% ब्रांचें रूरल एरिया में हैं। ग्राहकों की बात करें तो लगभग 45 करोड़ जनधन खातों में से केवल सवा करोड़ प्राइवेट बैंकों ने खोले हैं।
एक सर्वे के अनुसार किसी भी सेविंग खाते को ब्रेक-इवन होने के लिए उसमें औसत बैलेंस पच्चीस हजार होना चाहिए। सरकारी बैंकों का अस्तित्व ख़त्म किया जा रहा है।
सरकार कहती है कि बैंकिंग में सरकारी बैंकों का एकाधिकार है जो कि बाजार की प्रतिस्पर्धा और ग्राहक के लिए हानिकारक है। इसीलिए उनका बिज़नेस प्राइवेट को दिया जा रहा है।
चलो मान लिया। लेकिन सरकारी बैंकों की बेच कर कौनसी प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जा रही है? अगर प्रतिस्पर्धा ही बढ़ानी है तो नयी बैंकों को लाइसेंस दो, पका पकाया हलवा देने कि क्या जरूरत है?
सरकार ये कतई समझने को तैयार नहीं है कि जनता की सेवा बिज़नेस नहीं होती। इसमें सरकारी संस्थानों का रहना जरूरी है। नहीं तो इसके बहुत दूरगामी परिणाम होंगे।
सरकारी नीतियों (पॉलिसी) का उद्देश्य अर्थव्यस्था और समाज में सुधार लाना होता है। सरकार नीति बनाती है और फिर उसे लागू करती है। नीतियां लागू करने के कई तरीके हैं। इनमें से दो तरीकों के बारे में आज बात करेंगे।
पहला है कैफेटेरिया एप्रोच और दूसरा है टारगेट बेस्ड एप्रोच। जैसा कि नाम से ही समझ आता है, कैफेटेरिया एप्रोच में पब्लिक को विकल्प दिए जाते हैं और उनमें से एक विकल्प को अपनाना होता है। इस तरीके में ये माना जाता है कि जनता समझदार होती है और अपना भला बुरा समझ सकती है।
दूसरा तरीका जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, थोड़ा स्ट्रैट फॉरवर्ड है। यानी अधिकारियों को पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशन के लिए टारगेट दे दिए जाते हैं और साथ में दे दी जाती है पावर। उन्हें किसी भी हालत में तय समय में रिजल्ट देना होता है। #StopPrivatizationOfPSBs #StopPrivatizationOfPSBs
कल ये फोटो देखी। ये कोई साधारण फोटो नहीं है। ये एक रोंगटे खड़े कर देने वाली, आत्मा को झकझोर देने वाली वीभत्स फोटो है। उतनी ही वीभत्स जितनी गाँधी की हत्या वाली फोटो, वियतनाम में अमरीकी नेपाम अटैक से भागती हुई छोटी सी बच्ची की फोटो,
तुर्की के समुद्र तट पर औंधे मुँह पड़ी हुई बच्चे के लाश वाली फोटो, जली हुई साबरमती ट्रेन और उसके बाद हुए गुजरात के दंगों में हाथ जोड़कर जान की भीख मांगने वाले उस आदमी की फोटो, ISIS द्वारा अमरीकी पत्रकार का गला काटने वाली फोटो,
1943 के बंगाल के अकाल में भूख से मरे लोगों की फोटो, वियतनाम कांग्रेस सदस्य की हत्या की फोटो। ये फोटो इतिहास के काले पन्नों में दर्ज की जायेगी, और सदियों तक भारत में चल रहे लोकतंत्र नमक झूठ की पोल खोलती रहेगी।
अभी सरकार ने कहा कि छोटी दूरी की रेल यात्रा के दाम इसलिए बढ़ाए जा रहे हैं ताकि लोग बेमतलब यात्रा न करें। इससे पहले खानपान पर रोक लगी थी। फिल्में और किताबें तो आये दिन बैन होती ही रहती हैं। Porn देखने पर पहले केंद्र सरकार ने पाबन्दी लगाई और अब UP सरकार पुलिस की धमकी दे रही है।
कोरोना में तो रातों रात लोगों को बिना पूर्व चेतावनी के छह महीनों के लिए घरों में कैद कर दिया था। उससे पहले लोगों को तीन घंटे का नोटिस देकर बैंकों के बाहर लाइन में लगवा दिया था। ऐसे नहीं है कि ये सब अभी शुरू हुआ है। ये माइक्रो मैनेजमेंट तो अंग्रेजों के ज़माने से चला आ रहा है।
आप अपनी मर्जी से पेड़ नहीं उगा सकते, न पानी मर्जी से पेड़ काट सकते हो। किसान को भी अगर खेत में कोई दूसरी फसल उगानी है तो पहले सरकार से परमिशन लेनी पड़ेगी। जमीन बेचनी है तो सरकार से परमिशन, जमीन पर घर बनाना है तो परमिशन, कुआँ खोदना है तो परमिशन।
कल ही सरकार ने घोषणा की कि गवर्नमेंट बिज़नेस अब प्राइवेट बैंक भी कर सकेंगे। जी नहीं, गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब सरकारी स्कीम्स लागू करना नहीं होता। गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब ट्रेज़री बिज़नेस।
सरकार की तरफ से टैक्स और अन्य सरकारी चालान जमा करना, रेवेन्यू रिसीप्ट जमा करना, पेंशन पेमेंट्स, ट्रेज़री की तरफ से पेमेंट करना। चेक टाइप नंबर 20 यानी स्टेट गवर्नमेंट ट्रेज़री चेक जारी करना इसी गवर्नमेंट बिज़नेस का एक भाग है।
ट्रेज़री एकाउंट्स अनलिमिटेड डेबिट अकाउंट होते हैं जिनके हर साल के अंत में क्रेडिट अकाउंट से रिकन्साइल किया जाता है और उसी के हिसाब से सरकार का आमदनी-खर्चा डिसाइड होता है। आज तक ये सारा काम सिर्फ SBI ही करती थी (दूसरी कोई और भी बैंक करती हो तो मेरी जानकारी में नहीं है)।
पिछले 3-4 सालों से एक चीज लगातार देखने को मिल रही है और वो ये कि सरकार की पैसे की डिमांड बहुत बढ़ गई है। साम-दाम-दंड-भेद सरकार ने राजस्व बटोरने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा है।
1. सर्विस टैक्स को GST में शामिल करके 18% की स्लैब में डाल दिया। 2. कार्बन टैक्स बोल के पेट्रोलियम पदार्थों पर बेतहाशा टैक्स लगा दिया। 3. केरोसिन, LPG वगैरह पर से सब्सिडी बिलकुल ख़त्म कर दी। 4. शराब और सिगरेट पर भी लगातार टैक्स बढ़ाये हैं। #CorporatePuppetGOVT
5. PSUs से लगातार डिविडेंड वसूला है। 6. सरकारी उपक्रमों की बिक्री पूरे जोश में चालू है। 7. RBI से भी पौने दो लाख करोड़ वसूला है। 8. इन्फ्लेशन की रेट 4% है मगर आयकर की स्लैब में उस हिसाब से बदलाव नहीं आये हैं। #CorporatePuppetGOVT
1990 के दशक के शुरुआत में लंदन में कुछ कंपनियों में बड़े घपले हुए। इनके नेपथ्य में था 1979 में मार्गरेट थेचर के नेतृत्व में शुरू हुआ निजीकरण का दौर (ब्रिटेन के निजीकरण के बारे में किसी और दिन बात करेंगे)।
दरअसल 1980 के दशक में निजी कंपनियों में दूसरी कंपनियों के अधिग्रहण की जबरदस्त होड़ मची। पैरेंट कंपनियां खूब उधार लेकर दूसरी कंपनियों को खरीद रही थी। इससे कंपनियों के ऊपर बहुत कर्ज बढ़ गया था। ऐसी ही एक कंपनी थी मैक्सवेल कम्युनिकेशन्स।
इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों के पेंशन फंड्स में सेंध लगा कर अधिग्रहण के लिए फंड्स जुटाए थे। कुछ ही सालों में कंपनी पर कर्ज इतना बढ़ गया कि 1992 में कंपनी ने बैंकरप्सी फाइल कर दी। उसी साल इंग्लैंड की ही Bank of Credit and Commerce International (BCCI) भी डूब गई।