सरकारी नीतियों (पॉलिसी) का उद्देश्य अर्थव्यस्था और समाज में सुधार लाना होता है। सरकार नीति बनाती है और फिर उसे लागू करती है। नीतियां लागू करने के कई तरीके हैं। इनमें से दो तरीकों के बारे में आज बात करेंगे।
पहला है कैफेटेरिया एप्रोच और दूसरा है टारगेट बेस्ड एप्रोच। जैसा कि नाम से ही समझ आता है, कैफेटेरिया एप्रोच में पब्लिक को विकल्प दिए जाते हैं और उनमें से एक विकल्प को अपनाना होता है। इस तरीके में ये माना जाता है कि जनता समझदार होती है और अपना भला बुरा समझ सकती है।
दूसरा तरीका जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, थोड़ा स्ट्रैट फॉरवर्ड है। यानी अधिकारियों को पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशन के लिए टारगेट दे दिए जाते हैं और साथ में दे दी जाती है पावर। उन्हें किसी भी हालत में तय समय में रिजल्ट देना होता है। #StopPrivatizationOfPSBs #StopPrivatizationOfPSBs
इस मेथड में जनता को निकम्मा, ढीठ और जड़बुद्धि माना जाता है और लोगों को भेड़-बकरियों की तरह हांका जाता है। एक उदाहरण से समझते हैं। जनसँख्या वृद्धि के खतरों को भारत ने काफी पहले ही भांप लिया था और भारत में विश्व में सर्वप्रथम परिवार नियोजन कार्यक्रम 1952 में शुरू किया गया।
शुरूआती दिनों में ये एक ऐच्छिक प्रोग्राम था। यानि परिवार नियोजन की सुविधाएँ मौजूद थी मगर उसके लिए व्यक्ति को नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता था। ज्यादा जोर लोगों में परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता पैदा करने पर था। #StopPrivatizationOfPSBs #StopPrivatizationOfPSBs
इससे कोई ख़ास असर नहीं पड़ा क्यूंकि देश में न तो स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता बहुत अच्छी थी और न ही लोगों में जागरूकता थी। कुछ समय बाद इंदिरा गाँधी सत्ता में आई। संजय गाँधी भी सरकार में महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। उनके नजर में देश की सभी समस्याओं की जड़ बढ़ती हुई जनसंख्या थी।
उन्होंने तुरंत कैफेटेरिया एप्रोच को हटा कर टारगेट बेस्ड एप्रोच को अपनाया। उनका मानना था कि टारगेट बेस्ड एप्रोच से रिजल्ट जल्दी मिलता है। देश भर के कलेक्टरों, डॉक्टरों और अन्य अधिकारियों को नसबंदी के टारगेट दे दिए गए। #StopPrivatizationOfPSBs #StopPrivatizationOfPSBs
टारगेट पूरे नहीं करने पर सजा का भी प्रावधान रखा, और टारगेट पूरे करने पर ईनाम दिया जाता था। लोगों को भी नसबंदी करवाने पर छोटे मोटे गिफ्ट दिए जाते थे। इस टारगेट बेस्ड एप्रोच ने गरीब, नासमझ लोगों पर कितने जुल्म ढाये इसकी एक अलग ही कहानी है।
टारगेट पूरे करने के चक्कर में बहला फुसला कर लोगों की नसबंदी की जाने लगी। कई जगह आदिवासियों के पूरे के पूरे गांव की नसबंदी करवा दी गयी। बिन ब्याहे लोगों की, बिना बच्चे वाले लोगों की नसबंदी करवा दी गई। नसबंदी कार्यक्रम देश में एक आतंक बन गया था।
इस टारगेट बेस्ड एप्रोच से कितना फायदा हुआ ये इस बात से समझा जा सकता है कि 1971 और 1981 में देश में जनसँख्या वृद्धि कि दर सबसे अधिक रही (2% प्रतिवर्ष से भी अधिक)। इस एप्रोच में एक खामी ये भी है कि सरकार और नेता कभी सामने नहीं आते, बल्कि सरकारी अधिकारियों को सामने कर दिया जाता है।
जिससे जनता के गुस्से का शिकार भी वही लोग होते हैं। देश भर में डॉक्टरों के साथ कई हिंसक घटनाएं हुई। लोगों में परिवार नियोजन कार्यक्रम इतना बदनाम हो चुका था कि इसका नाम बदल कर परिवार कल्याण कार्यक्रम करना पड़ा।
विभिन्न प्रशासनिक नीति विशेषज्ञों ने कैफेटेरिया एप्रोच और टारगेट एप्रोच का मिश्रण सुझाया। अभी पिछले कुछ समय से वापिस सरकार ने टारगेट बेस्ड एप्रोच पर जोर देना शुरू कर दिया है।
बजाय कि लोगों को सरकार की नीति और उसके कार्यक्रमों से अवगत करवाया जाए, सरकार आजकल अपने निर्णय लोगों पर थोपने लगी है। प्रदूषण बढ़ रहा है, पेट्रोल महंगा कर दो, कोरोना का खतरा है, ट्रेनें बंद कर दो, ट्रेनों में भीड़ है, किराया दोगुना कर दो,
पैसा चाहिए, सरकारी कंपनियां बेच दो, आर्थिक वृद्धि दर कमजोर है, बिना देखे जबरदस्ती लोन बांटो। हद्द तो तब हो जाती है जब बिना किसी तैयारी के ही निर्णय लागू कर दिए जाते हैं, नोटबंदी, GST, लॉकडाउन, कृषि कानून ये सब कुछ ऐसे ही निर्णय है।
इस समय जनता की राय लेने का केवल ढोंग किया जा रहा है। सरकार का ये मानना है कि जनता को देश और समाज की कोई समझ नहीं है। सरकार को अपनी शक्ति का जबरदस्त घमंड हो चुका है। उसका मानना है कि लोगों को समझाने से अच्छा है उनको जानवरों की तरह हाँक लिया जाये।
सरकार के अधिकतर निर्णय आजकल बैंकों के जरिये ही लागू किये जा रहे हैं। चाहे कोरोना राहत हो, फसल बीमा हो, आत्मनिर्भर भारत योजना हो। ऐसे में बैंकर ही जनता में फैले असंतोष का सीधा निशाना बन रहे हैं। और सरकार ने तो टारगेट दे देकर बैंकरों को कोल्हू का बैल बना ही रखा है।
आज बैंकर दोनों तरफ से पिस रहे हैं। अब इस टारगेट बेस्ड एप्रोच से कितना फायदा होगा ये तो समय ही बताएगा लेकिन अगर यही क्रम जारी रहा तो देश के सरकारी बैंक किसी लायक नहीं बचेंगे। सरकार इस समय रिंगमास्टर की तरह बर्ताव कर रही है। अब सर्कस का शेर वैसे भी ज्यादा कहाँ जी पाता है।
बैंक कंपनियां नहीं हैं। बैंक पब्लिक इंस्टीटूशन (जन संस्थान) हैं। कंपनी का काम होता है प्रॉफिट कमाना। पब्लिक इंस्टीटूशन का काम होता है पब्लिक सर्विस देना। गाड़ियां बनाना कंपनी का काम है, सड़कें बनाना पब्लिक सर्विस है।
बस बनाना कंपनी का काम है, पब्लिक ट्रांसपोर्ट पब्लिक सर्विस है। दोनों को एक ही तराजू में नहीं तोल सकते। अभी साहब ने कहा कि "Government has no business to be in business"। लेकिन ये तो बिज़नेस के नाम पर पब्लिक इंस्टीटूशन बेच रहे हैं।
कल ये फोटो देखी। ये कोई साधारण फोटो नहीं है। ये एक रोंगटे खड़े कर देने वाली, आत्मा को झकझोर देने वाली वीभत्स फोटो है। उतनी ही वीभत्स जितनी गाँधी की हत्या वाली फोटो, वियतनाम में अमरीकी नेपाम अटैक से भागती हुई छोटी सी बच्ची की फोटो,
तुर्की के समुद्र तट पर औंधे मुँह पड़ी हुई बच्चे के लाश वाली फोटो, जली हुई साबरमती ट्रेन और उसके बाद हुए गुजरात के दंगों में हाथ जोड़कर जान की भीख मांगने वाले उस आदमी की फोटो, ISIS द्वारा अमरीकी पत्रकार का गला काटने वाली फोटो,
1943 के बंगाल के अकाल में भूख से मरे लोगों की फोटो, वियतनाम कांग्रेस सदस्य की हत्या की फोटो। ये फोटो इतिहास के काले पन्नों में दर्ज की जायेगी, और सदियों तक भारत में चल रहे लोकतंत्र नमक झूठ की पोल खोलती रहेगी।
अभी सरकार ने कहा कि छोटी दूरी की रेल यात्रा के दाम इसलिए बढ़ाए जा रहे हैं ताकि लोग बेमतलब यात्रा न करें। इससे पहले खानपान पर रोक लगी थी। फिल्में और किताबें तो आये दिन बैन होती ही रहती हैं। Porn देखने पर पहले केंद्र सरकार ने पाबन्दी लगाई और अब UP सरकार पुलिस की धमकी दे रही है।
कोरोना में तो रातों रात लोगों को बिना पूर्व चेतावनी के छह महीनों के लिए घरों में कैद कर दिया था। उससे पहले लोगों को तीन घंटे का नोटिस देकर बैंकों के बाहर लाइन में लगवा दिया था। ऐसे नहीं है कि ये सब अभी शुरू हुआ है। ये माइक्रो मैनेजमेंट तो अंग्रेजों के ज़माने से चला आ रहा है।
आप अपनी मर्जी से पेड़ नहीं उगा सकते, न पानी मर्जी से पेड़ काट सकते हो। किसान को भी अगर खेत में कोई दूसरी फसल उगानी है तो पहले सरकार से परमिशन लेनी पड़ेगी। जमीन बेचनी है तो सरकार से परमिशन, जमीन पर घर बनाना है तो परमिशन, कुआँ खोदना है तो परमिशन।
कल ही सरकार ने घोषणा की कि गवर्नमेंट बिज़नेस अब प्राइवेट बैंक भी कर सकेंगे। जी नहीं, गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब सरकारी स्कीम्स लागू करना नहीं होता। गवर्नमेंट बिज़नेस मतलब ट्रेज़री बिज़नेस।
सरकार की तरफ से टैक्स और अन्य सरकारी चालान जमा करना, रेवेन्यू रिसीप्ट जमा करना, पेंशन पेमेंट्स, ट्रेज़री की तरफ से पेमेंट करना। चेक टाइप नंबर 20 यानी स्टेट गवर्नमेंट ट्रेज़री चेक जारी करना इसी गवर्नमेंट बिज़नेस का एक भाग है।
ट्रेज़री एकाउंट्स अनलिमिटेड डेबिट अकाउंट होते हैं जिनके हर साल के अंत में क्रेडिट अकाउंट से रिकन्साइल किया जाता है और उसी के हिसाब से सरकार का आमदनी-खर्चा डिसाइड होता है। आज तक ये सारा काम सिर्फ SBI ही करती थी (दूसरी कोई और भी बैंक करती हो तो मेरी जानकारी में नहीं है)।
पिछले 3-4 सालों से एक चीज लगातार देखने को मिल रही है और वो ये कि सरकार की पैसे की डिमांड बहुत बढ़ गई है। साम-दाम-दंड-भेद सरकार ने राजस्व बटोरने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा है।
1. सर्विस टैक्स को GST में शामिल करके 18% की स्लैब में डाल दिया। 2. कार्बन टैक्स बोल के पेट्रोलियम पदार्थों पर बेतहाशा टैक्स लगा दिया। 3. केरोसिन, LPG वगैरह पर से सब्सिडी बिलकुल ख़त्म कर दी। 4. शराब और सिगरेट पर भी लगातार टैक्स बढ़ाये हैं। #CorporatePuppetGOVT
5. PSUs से लगातार डिविडेंड वसूला है। 6. सरकारी उपक्रमों की बिक्री पूरे जोश में चालू है। 7. RBI से भी पौने दो लाख करोड़ वसूला है। 8. इन्फ्लेशन की रेट 4% है मगर आयकर की स्लैब में उस हिसाब से बदलाव नहीं आये हैं। #CorporatePuppetGOVT
1990 के दशक के शुरुआत में लंदन में कुछ कंपनियों में बड़े घपले हुए। इनके नेपथ्य में था 1979 में मार्गरेट थेचर के नेतृत्व में शुरू हुआ निजीकरण का दौर (ब्रिटेन के निजीकरण के बारे में किसी और दिन बात करेंगे)।
दरअसल 1980 के दशक में निजी कंपनियों में दूसरी कंपनियों के अधिग्रहण की जबरदस्त होड़ मची। पैरेंट कंपनियां खूब उधार लेकर दूसरी कंपनियों को खरीद रही थी। इससे कंपनियों के ऊपर बहुत कर्ज बढ़ गया था। ऐसी ही एक कंपनी थी मैक्सवेल कम्युनिकेशन्स।
इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों के पेंशन फंड्स में सेंध लगा कर अधिग्रहण के लिए फंड्स जुटाए थे। कुछ ही सालों में कंपनी पर कर्ज इतना बढ़ गया कि 1992 में कंपनी ने बैंकरप्सी फाइल कर दी। उसी साल इंग्लैंड की ही Bank of Credit and Commerce International (BCCI) भी डूब गई।