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उन चारों को होटल में बैठा देख, मनीष हड़बड़ा गया.
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लगभग 25 सालों बाद वे फिर उसके सामने थे. शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे.
मनीष को अपने स्कूल के दोस्तों का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था.
उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर. मनीष पढ़ाई पुरी नही कर पाया था. उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया.
वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये.
मनीष को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की.
उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा.
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टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था, शायद उन्होने उस पे कुछ जोड़-घटाया था.
अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी. लिखा था - अबे साले तू हमे खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं?
अबे 25 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते. तुझे टिप देने की हिम्मत हममे नही थी. हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है. अब इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा.
आज तेरा इस होटल का आखरी दिन है. फैक्ट्री की कैंटीन कोई तो चलायेगा ना?
तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा??
याद हैं न स्कुल के दिनों हम पांचो एक दुसरे का टिफिन खा जाते थे. आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे
मनीष की आंखें भर आई उसने डबडबाई आँखों से आकाश की तरफ देखा और उस पेपर को होंठो से लगाकर करीने से दिल के पास वाली जेब मे रख लिया
सच्चे दोस्त हो तो जिंदगी आसान हो जाती है